गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

कुछ यूं ही कर दिखाओ तो जानें




वाह भईये , भई बहुत अच्छे जा रहे हो । यूं ही सधे सधे कदमों से आगे बढते चलो , बेशक इस लडाई का अभी कोई तुरंत और त्वरित सुखद परिणाम निकल कर सामने नहीं आए , इसके बावजूद, हां इसके बावजूद भी ये जो समीकरण बदलने की शुरूआत तुमने की है उसका प्रभाव देखने के लिए सिर्फ़ इतना ही देखना काफ़ी होगा कि बिना खानदान , पुश्तों की राजनीतिक बपौती , बिना किसी बडे बडे आपराधिक दबंगई के रिकार्ड के तुमने न सिर्फ़ बरसों से चली आ रही सोच और निष्क्रियता को थोडा सा तो झटक दिया है । सालों से सोई सोच को तंद्रा से उठाने के लिए इतना झटका पर्याप्त तो है ही ।


आखिरकार वही हुआ जिसका डर था , डर सियासत और सियासतदानों को था , वे अक्सर ही नायक फ़िल्म के अमरीश पुरी बनकर बात बेबात चिल्ला कर कहते थे , अबे यूं न समझो हमें जनता ने चुन कर भेजा है , हम जनता की आवाज़ हैं , जो कहते हैं जो करते हैं समझो जनता कहती है जनता करती है , बिल्कुल राजा बाबू वाली फ़ील सी आने लगती थी , फ़िर जब जरा सा आइना दिखाया तो बिलबिला कर बोल बैठे , चलो आओ जाओ फ़िर मैदान में । लगता तो ये है कि अब ये राजनीतिक पार्टियां यही सोच रही होंगी कि जब आज तक देश की जनसंख्या बढते हुए जाने कितनी गुना हो गई है और ऐसे में भी देश चलाने के लिए सिर्फ़ उतने ही चुने हुए नगीनों के कंधों पर यकीन किया जाना चाहिए , ज्यादा कंधें ज्यादा जिम्मेदारी उठा सकते हैं , लेकिन यहां कंधों की नहीं सिर्फ़ जेबों की जरूरत ही मुख्य रही थी , ऐसे में भी प्रतिनिधियों ने कंधों का दायरा ज्यादा नहीं बढने दिया । शायद फ़िर दूसरी ये वजह रही हो कि , सत्र के दौरान वैसे ही क्या कम हाट बाज़ार मंडी वाली भावना दिखाई देती है जो और जनप्रतिनिधियों की गुंजाईश बनाएं ।


वाह भईये , कहां तो जंतर मंतर से मुट्ठी भर सेना के सहारे सीधा सियासत को ललकार दिया , ईश्वर ही जानता है कि उस समय जंतर मंतर पर मौजूद एक एक व्यक्ति ,देश और व्यवस्था को बदलने के जिस ज़ज़्बे को जी रहा था वो यदि पश्चिमी या अरब देशों की तरह हिंसक हो उठता तो जनलोकपाल से पहले सी सरकार का जनाजा उठा  के मानता । सिद्धांत और विचारों के कारण एक हुए लोग , फ़िर किसी वैचारिक भिन्नता के कारण अलग अलग रास्तों पर चलने को उद्दत हुए । एक ने चुना उस चुनौती को सीधे सियासत के नुमाइंदों ने की थी , दूसरे ने चुना वही जन आंदोलन और सामाजिक जागरूकता का रास्ता । लेकिन दोनों की इस फ़ूट को इस लडाई की विफ़लता करार देने वाले ये भूल कर बैठे कि इस तरह तो उनके खिलाफ़ दो मोर्चों पर लडने वाले उठ खडे हुए हैं , जिनकी लडाई बेशक अलग हो मगर मकसद तो वही है । और फ़िर क्या ये अवश्यंभावी नहीं है कि नीयत मिलने वाले लोगों के पुन: मिल बैठने की गुंज़ाईश ज्यादा प्रबल है । वैसे सोच कर देखिए कि , यदि जनलोकपाल की लडाई को शुरू करने वाली वो सिविल सोसायटी कोई एक रास्ता ही चुन कर उस पर अपनी चोट प्रबलता से करती तो क्या सियासत और सरकार इतने दिनों तक भी चैन से रह सकते थे ।


अब एक नया हल्ला मच और मचाया जा रहा है , वादे कर तो दिए मगर पूरे नहीं कर पाएंगे इसी वजह से तो ये नए नए शहसवार मैदाने सियासत में कूदने से डर रहे हैं , ललकारने पर कोई खुद सी एम बनकर समस्याओं को हल करे ऐसा तो सिर्फ़ नायक सिनेमा में हो सकता है ,असल में ऐसा कोई नायक समाज में आज मौजूद नहीं है । गौर से देखिए , आज सरकार , समाज और थोपी गई नीतियों के खिलाफ़ उठ कर खडे होने और लडने वालों की तादाद बढती ही जा रही है , समय आ रहा है जब हर उस एक व्यक्ति को निशाने पर लिया जाएगा और लिया जाना चाहिए जिसकी आमदनी से कहीं बडी और ऊंची उसकी औकात हो जाए । क्या नहीं हो सकता , बिजली , पानी , सडकें , शौचालय , स्कूल , अस्पताल ...एक एक चीज़ हो सकती है , करोडों अरबों कमाने वालों की पूरी फ़ौज़ खडी है , सभी दो नंबरियों की सारा माल पत्तर जब्त करके झोंक दो सबके लिए । इतने स्कूल इतने अस्पताल इतने अदालत बना दो कि गरीब को पढने के लिए , ईलाज़ और न्याय के लिए बरसों तक सरकार समाज का मुंह नहीं ताकना पडे ।


सबसे अहम बात , ये सब तभी संभव है जब लोकसेवक बन कर काम करना , नेता मंतरी बन कर नहीं । ध्यान रहे कि ये जनसेवा की कुर्सी सिर्फ़ पांच बरसों के लिए मिली है वो भी एडहॉक बेसिस पे , इसलिए बिंदास और बेखौफ़ करो अपना काम , ये ध्यान में रखते हुए कि जनता खुद अब सी आर लिख रही है सबका । वैसे तो ताज़ा घटनाक्रम और पल पल बदलते तेवर यही बता रहे हैं कि आम आदमी को सिंहासन पर बैठा हुआ देखने का ताव ये सभी राजनीतिज्ञ ज्यादा दिनों तक नहीं सह सकेंगे , लेकिन जब तक चले ये रस्साकशी , तुम थामे रहना , झुकना मत , टूटना मत ................

रविवार, 10 नवंबर 2013

बी.टेक और एम.बी.ए पर भारी बी.एड ..अथ मगन लाल उवाच


ये मगनलाल जी नहीं हैं , गूगल खोज इंजन से लिया गया चित्र




मगनलाल जी के किस्से आप पहले यहां पढ चुके हैं , जिसमें मगन लाल जी ये कहते पाए गए थे कि , देश में भ्रष्टाचार और बेइमानी की असली वजह है देश के राजे ही बेइमान और भ्रष्ट हैं । अगले दिन जब मैं मगन लाल जी रेहडी के पास पहुंचे तो वे अपने साथ रोज़ खडे होने वाले आइसक्रीम वाले राजू से बातचीत में मगन मिले ।

मैं चुपचाप खडा उनकी बातें सुनने लगा ।

राजू ने शायद उनसे उनके परिवार और बाल बच्चों का हाल चाल संभवत: उनकी पढाई लिखाई के बारे में पूछा था , जिस पर तल्ख होकर मगन लाल जी कह रहे थे ।

"अरे क्या बताऊं दोनों ही बेटों को नए कोर्सों में डाला , एक बी टेक करके है और दूसरा वो मैनेजमेंट वाला होता है न "

मैंने कहा "बी.बी.ए या एम .बी.ए ..........."

"हां वही वही एम बी ए में , गांव की सारी जमीन बेच बेच के उनकी फ़ीस जमा करी है । बडे वाले का कोर्स तो पूरा भी हो गया मगर अब तक ढंग की नौकरी नहीं लगी , पता नहीं करना भी चाहता है नहीं , ये आजकल के बच्चों को चाहिए भी तो सीधा ही अफ़सर वाली नौकरी , मुलाज़िम तो कोई बनना ही नहीं चाहता । ये समझते ही नहीं हैं सीढियां नीचे से ऊपर चढने के लिए बनाई जाती हैं , कोई ऊपर से नीचे आने के लिए सीढियां नहीं बनाता , कहो तो मुंह फ़ुला लेते हैं , बार बार मंदी मंदी कटौती कटौती की बात कह देते हैं , खाली बैठा रहता है नहीं तो घूमता फ़िरता रहता है । "


इस बीच राजू टोकते हुए कहता है ," तुम्हें रुकना चाहिए था न मगन जी , पहले एक को कोर्स कराते फ़िर उसकी नौकरी लग जाने देते फ़िर दूसरे को कोई दूसरा कराते , सब देख दाख कर "


"अरे कैसी बात करते हो राजू यार , देख क्या लेते , हमें कौन सी समझ है इन बडी पढाइयों की और फ़िर क्या उम्र रुकी रहती है किसी , एक की पढाई खतम होने और उसके सैट होने तक क्या दूसरे को रोक कर रखता , उसने कहा मेरे दोस्तों ने मैनेजमेंट की पढाई में नाम लिखाया है , मैं भी वही कर लेता हूं । कहता तो है कि पास होते ही नौकरी तो लग ही जाएगी , मगर जी घबराता है । "


"वो तो खुदा का शुक्र है कि संगीता ने बी.एड कर ली और टाईम से उसकी नौकरी भी लग गई । पहले दो साल तो वो प्राइवेट में ही पढा रही थी और कुछ न कुछ घर ले ही आती थी , जबसे उसकी सरकारी नौकरी लग गई है तबसे थोडी सांस में सांस है भाई । वर्ना इन रेहडी , खोमचे से घर कितनी देर चलेगा । साल छ : महीने में उसके हाथ पीले कर दूंगा अपने घर चली जाएगी फ़िर मुझे चिंता नहीं । ये ससुरे करते रहें जो करना है , मैं तो साफ़ कह दूंगा कि नौकरी मिलती है तो करो , नहीं तो लगाओ , केले , सेब , अमरूद या अंडे की रेहडी " ।


मगनलाल जी केलों को मेरे थैले में डालते हैं और मैं उन्हें उठा कर मुड जाता हूं ....................

शनिवार, 2 नवंबर 2013

राजा बेइमान है , अथ मगन लाल जी उवाच


ये मगन लाल जी नहीं हैं , चित्र गूगल के खोज परिणाम से और मूल फ़ोटोग्राफ़र से आभार सहित


हमारे मुहल्ले के करीब वाली सडक पर ही मगनलाल जी अक्सर खडे होते हैं , अपनी केले की रेहडी के साथ । वे हमेशा केले नहीं बेचते हैं , मौसम के अनुसार फ़ल रखते हैं बेचने के लिए । कभी चीकू , कभी सिंहाडे , अमरूद लेकिन ज्यादा साथ केला ही देता है । बकौल मगन लाल जी , गरीब अमीर सबका फ़ल है बाबूजी , दो से लेकर दर्ज़न तक ,बडी ही सहूलियत से खरीदा जाता है और कुदरत ने इस तरह से बनाया है इसको कि बेचने में भी उतनी ही सहूलियत । 


लेकिन मगन लाल जी सिर्फ़ केलों पर ही नहीं कहते । मैं शाम की कसरत के बाद अक्सर जा पहुंचता हूं उनकी रेहडी के पास , मेरे साथ ही दोनों बच्चों को भी बेहद पसंद है केला । और इसी कारण एक जान पहचान सी हो गई है उनसे और उनसे ज्यादा उनकी बातों से ।


" उस सामने खडे कांस्टेबल को देख रहे हैं बाबूजी , राजस्थान का है रहने वाला , ये और इसका एक और साथी दशहरे के बंदोबस्त के पहले से लगे हुए हैं यहां , और उस दिन से आज तक शायद ही कोई दिन बीता हो जब इसने आसपास खडी सभी रेहडियों से , किसी से अंडा , आमलेट , किसी से भल्ले पापडी , किसी से सेब तो किसी से और कुछ , रोज़ाना दो तीन सा सामान न खाया हो और मजाल है जो आज तक किसी से ये भी पूछा हो कि कितना हुआ " " इतना ही नहीं आसपास से गुजरने वाले अपने साथियों को भी बुला लेता है , खिलाने पिलाने के लिए , इनका तो इतना बुरा होना चाहिए न साहब कि क्या कहूं "

" क्यों सिर्फ़ गोरमेंट को ही गालियां पडें , जब हम सब आपस में ही एक दूसरे को लूट रहे हैं साहब , इस पुलिस वाले को क्या ये नहीं पता कि हम गरीब लोग कैसे जी रहे हैं , वो भी इस शहर में "

मैं अवाक सुन रहा था , " हां मगन लाल जी ये एक हकीकत है आज अपने समाज की , लेकिन अब बदल तो रहा ही है धीरे धीरे सबकुछ "

"अरे कुछ नहीं बदल रहा है साब । पचास रुपए की जेब काटने वाले को भी वही जेल की सज़ा और अरबों खरबों रुपए दबा लेने वाले को भी , आज तक किसी घपले घोटाले वाले के पैसे पकडे हैं सरकार ने कोर्ट ने , वो हम गरीबों का ही तो पैसा है साब , और जब राजा ही बेइमान है तो प्रजा से क्या उम्मीद की जा सकती है । एक पते की बात बताऊं साब अगर बडे लोग बेइमान न हों तो मजाल है छोटों की इतना कर सकें । ये कौन सा न्याय हुआ साब कि अरबों खरबों लूट के अपनी सात पुश्तों के लिए रख जाओ और पकडे जाने पर जेल की सज़ा ले लो , वो भी आधा अस्पताल में और आधा कोर्ट में " " इनका तो सारा रुपया पैसा लेकर सरकारी खजाने में रख देना चाहिए , ताकि उसे देश के काम में लगाया जाए " ।


 रेहडी के साथ खडे मगन लाल जी कहते जाते हैं , धारा प्रवाह ..और मेरे कानों में सायं सायं होने लगती है .."हां अगर बडों को ये एहसास हो जाए तो ही स्थिति बदल सकती है .............................सोचते हुए
मैं हाथ में पकडे हुए केलों को स्कूटर की डिक्की में रखता हूं , और किक मार देता हूं ।



अगले दिन मगनलाल जी ने मुझे समझाया कि किस तरह से एमबीए और बीटेक पर भारी पड गई बी.एड ....आप चक्कर लगाते रहिएगा

रविवार, 8 सितंबर 2013

दंड पेलती हिंदी ............


देखिए गौर से लिखा है झ से झा :) :)


सितंबर का महीना बीमार और कमज़ोर होती हिंदी के लिए दंड पेलने का समय होता । एक तारीख से 14 सितंबर तक और कभी कभार तो पूरे महीने "हिंदी-हिंदी "खेलने के कई तरह के टूर्नामेंट और ट्वेंटी-ट्वेंटी (हिंदी बोले तो खेल प्रतियोगिता और बीस-बीसा ) आयोजित किए जाते हैं । इस खास मानसूनी मौसम में ,डेंगू मलेरिया  से ग्रस्त जनता के साथ ये समय "हिंदी" को ग्लूकोज़ की बोतलें चढाने का भी होता है । सरकार व प्रशासन तो हिंदी के साथ ठीक वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसा कि वो आम लोगों के साथ करते हैं । आम आदमी की याद पांच बरस में एक बार आती है और हिंदी की याद बरस में एक दिन । 


हिंदी को कामकाज की भाषा बनाने की घनघोर प्रतिज्ञा सरकार ने ले तो ली मगर जब कामकाज के नाम पर सिर्फ़ घपले घोटाले ही करने होते हैं तो फ़िर क्या फ़र्क पडता है वो हिंदी में करो या किसी अन्य भाषा में । हां इस  समय सरकार चाहे तो ये कह कह अपनी पीठ थपथपा सकती है कि कोयले आवंटन घोटाले से संबंधित सारी गुम हुई फ़ाइलें हिंदी में ही लिखी पढी गई थीं , अब कोई इसे गलत साबित करके दिखाए तो मानें । 

जहां तक हिंदी के साथ हुए इस तथाकथित अन्याय की बात है तो खुद अदालत के हाकिम ही कहते हैं कि कानून की दुनिया में हिंदी का क्या काम ? ठीक भी है , कानून हिंदी में होगा तो आम आदमी भी आसानी से समझ जाएगा ,जब आम आदमी कानून समझ ही जाएगा तो फ़िर तोडने से भी बच बचा जाएगा और अगर कानून नहीं टूटेगा , तोडा जाएगा तो अदालतें चलेंगी कैसे और हाकिम करेंगे क्या ??


हिंदी पर अगर कोई मेहरबान है तो वो है मोबाइल कंपनियां मगर हाय रे हिंदी की किस्मत वहां की हिंदी तो हिंदी की पूरी चिंदी कर डालने पर आमादा हैं ,जैसे ही मोबाइल खोलो ,"हाय , व्हाट्स अप्प्, और हिंदी गोल गप्प "

हालांकि हिंदी की लगातार पतली होती हालत पर ज्यादा दुबला होने की जरूरत कतई नहीं है क्योंकि हिंदी खुद दंड पेल कर कडी टक्कर दे रही है । सबूत चाहते हैं तो आप चेन्नई एक्सप्रेस को ही लीजीए न । अकेली हिंदी जब तक थी सौ करोड तक बिन्नेस का मामला पहुंचता था  , मगर जैसे ही हिंदी ने तमिल के साथ दो दो हाथ , कुश्ती दंगल और प्यार किया मामला दो सौ करोड के पार और उससे भी पारमपार पहुंचता दिख रहा है । सबसे अच्छी बात तो ये हुई है कि तमिल चार छ; फ़ीट लंबी तगडी होते हुए भी सिनेमा के अंत में हिंदी उसे पटक पटक कर जीत जाती है और फ़िर खुशी खुशी दोस्ती कर लेती है ।