रविवार, 3 जून 2012

वो साढे सात साल की उम्र के " भाई साहब "







"भाई साहब मुझे भी "

मंदिर की कतार में खडे उस शख्स ने, जो यूं तो एकटक मंदिर के प्रवेश द्वार के पीछे भगवान की मूरत और वहां साथ ही दीवार पर लगी पर अपना ध्यान लगाए हुए थे , अचानक ही मुड कर उस आवाज़ की ओर देखा । हमेशा की तरह ,मंगलवार और शनिवार को एक निश्चित समय पर कुछ गरीब लोगों नुमा जीवों (उन्हें वो जिस तरह से हाथ पसार कर दूसरे के सामने खाने के लिए कुछ , प्रसाद के रूप में मिल जाने के लिए कुछ , और अन्य सभी तरह के कुछ की खातिर हाथ फ़ैलाए बैठे देखता उससे उसे अंदाज़ा हो गया था कि ये मानव शरीर प्राप्त वो जीव हैं जिन्हें अब भी दो वक्त की रोटी नसीब नहीं होती बिना किसी की दया के , इसलिए वे गरीब नुमा लोग जीव ही हैं )का एक झुंड मंदिर के बाहर बैठ जाता । 


मंदिर में आने वाले भक्त , मंदिर के अंदर जाते , प्रभु के दर्शन करते और फ़िर जब बाहर निकलते तो कभी प्रसाद , कभी फ़ल , कभी कुछ और जिसको जितना देना होता उस झुंड में बांट कर चले जाते । कुछ लोग अपनी मनौती के पूरे होने के बाद तो कुछ अपनी या अपने किसी प्रिय हेतु , घर से कुछ खाद्य पदार्थ , कभी पूरी सब्जी , कभी केले , कभी बिस्कुट , कभी कुछ और , बना कर लाते और उन झुंडों के जीवों को बांट कर चले जाते । ये क्रम कब से और कहां से चलता हुआ यहां तक पहुंचा ये शोध का विषय हो सकता है , अलबत्ता सरकार या प्रशासन के लिए ये कोई मुद्दा , मौका , समस्या , जैसा कुछ भी नहीं है सो इस पर उनसे कैसी भी अपेक्षा रखना बेमानी है । खैर तो उस दिन भी वो भक्त , मंदिर के बाहर अपनी बारी के आने का इंतज़ार कर रहा था

"भाई साहब मुझे भी ", उसने चौंक कर उधर देखा , क्योंकि ये आवाज़ एक बच्चे की थी , अमूमन तौर पर बच्चों के मुंह से अंकल मुझे भी या बाबू जी मुझे भी जैसा ही कुछ सुनने को मिलता है , सो चौंक उठना लाजिमी था । उसने देखा कि पांच उससे भी कम बरस का एक छोटा सा बच्चा जो उस जीवों के झुंड का एक हिस्सा था , ये आवाज़ उसकी थी । हैरान कर देने वाली बात ये थी कि वो जिसे भाई साहब कह रहा था , वो भाई साहब , एक साढे सात आठ साल का बच्चा था जो अपने माता पिता के साथ मंदिर आया हुआ था , दोनों हाथों में छोले पूरी के दोने लिए हुए एक एक करके उस झुंड के सभी लोगों में बांट रहा था ॥

बच्चा जो पांच साल का था उसके मुंह से ये स्वाभाविक तौर पर निकला था शायद , वजह ये थी शायद कि उसे लगा कि कहीं वो बच्चा , अपने किसी बचपने में कहीं उसे छोड न जाए । मंदिर की कतार में प्रभु के दर्शन पाने के लिए खडे उस व्यक्ति की दिमाग में यही बात गूंज रही थी और वो ईश्वर से पूछ रहा था कि बताओ प्रभु ,

"आखिर ये तुम्हारी दुनिया में एक पांच साल का बच्चा , कुछ खाने के लिए पाने की आस में एक साढे सात साल के बच्चे को भाई साहब  कहने को क्यों मजबूर है ????"

14 टिप्‍पणियां:

  1. क्या कहें अजय भाई ... क्या कहे इस पर ... :(

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  2. कल 04/06/2012 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  3. साहब शब्द है ही ऐसा . किसी को छोटा , किसी को बड़ा होने का अहसास देता है .

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  4. प्रश्न गंभीर है...
    प्रभु के दरबार में शीश नवाने वालों हम लोगों को ही तो उत्तर देना है इसका...!

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  5. ' साहब ' एक पासवर्ड सा बन गया है ,जो तमाम जगह काम बना ही डालता है |

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  6. इक बाग में दो फूल खिले, किस्मत जुदा-जुदा।

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  7. पेट के आग के आगे कहाँ कुछ सूझता है..
    बहुत ही मर्मस्पर्शी प्रस्तुति ..आभार

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  8. मुझे तो उस साढ़े सात साल के बच्चे पर भी दया आ रही है। साढ़े साती ही होगी कि बेचारा अभी से कर्मकांड सीख रहा है।

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  9. भाई अजय जी,उस लड़के ने बहुत अदबी से कहा उसे भाई साहब.

    शुक्र है.

    डर तो यह है कि अदबी की जगह बेअदबी न ले ले कभी.

    अच्छा तो तब लगेगा जब बांटने वाला बच्चा भी
    अहंकार को पोषण न करे और नम्रता से कहे 'अभी लों मेरे दोस्त मेरे भाई'

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  10. जाने किस्मत की दुहाई दी जाए या जीवन का दस्तूर, दो बच्चे एक भिक्षुक एक दाता. पर हर भीख मांगने वाला भीख के उपयुक्त पात्र भी नहीं होता. वृद्ध और शारीरिक रूप से असहाय को सरकार द्वारा अनुदान दिया जाए और उनसे उनके उपयुक्त श्रम लिया जाए ताकि मेहनत की कमाई कर सकें. कई बार सक्षम को भी भीख मांगते हुए देखा है और ऐसे में क्रोध आता है. मार्मिक दृश्य आपने दिखाया, शुभकामनाएँ.

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पढ़ लिए न..अब टीपीए....मुदा एगो बात का ध्यान रखियेगा..किसी के प्रति गुस्सा मत निकालिएगा..अरे हमरे लिए नहीं..हमपे हैं .....तो निकालिए न...और दूसरों के लिए.....मगर जानते हैं ..जो काम मीठे बोल और भाषा करते हैं ...कोई और भाषा नहीं कर पाती..आजमा के देखिये..