शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

यूँ न धमकाना फिर कभी, हम अक्सर मुकदमों में रहते हैं.....




तुम्हें होगी आदत,
घावों को कुरेद,
उन्हें हरा करके,
देखने की,
हम दर्द ,
पी जाया करते हैं,
हम नहीं,
जख्मों में रहते हैं........

कभी धर्म, जाति,
भाषा, नर-नारी,
विचार-मतभेद,
न जाने किन-किन,
बातों से,
चलाते हो,
तुम्ही ये,
अभिव्यक्ति की दुनिया,
तुम जैसे कई ,
इन्ही भरमो में रहते हैं.........

हमारा उतना ,
बड़ा न सही,
मगर इक ,,छोटा सा ही,
नाम तो है,
हम क्यूँ छुप्पायें,
उसको., कौन सा,
तुम जैसे कुकर्मो में रहते हैं...

और हाँ .....एक आखिरी जरूरी iबात..फिर नहीं बताएँगे...

हम मानते हैं,
तुम्हारे कई रसूखवाले,
जाने किन -किन ,
महकमों में रहते हैं,
मगर हमें न,
यूँ फिर ,
धमकाना कभी,
हम भी अक्सर,
मुकदमों में रहते हैं.....

कोर्ट कचहरी वाले हैं भाई...मुकदमों में ही रहते हैं दिन भर...और ये मत पूछियेगा की धमकी कौन कैसी, क्यूँ ,,दे रहा/रही है /या दिया था ...जानने वाले जान ही जायेंगे...और ...छोडिये ....जाने दीजिये...आखिरी बार कहा है ...अब नहीं कहेंगे...और यदि ऐसा ही है की किसी न किसी से शुरुआत होगी ही ..तो हम भी तैयार हैं...ये न समझना की ..कहीं दूर चले जायेंगे....

7 टिप्‍पणियां:

  1. अजय जी बहुत सुंदर कविता, लेकिन नीचे सरलर्थ समझ मै नही आया.
    धन्यवाद

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  2. kuchh nahin raj bhai...bas unke liye kaha hai ..aur ummeed hai ki shaayad ye padh kar unko mere andaaj aur tevar ka pata chal jaaye.....

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  3. अच्छी रचना है। सरलार्थ की आवश्यकता नहीं थी।

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  4. आपकी रचना बहुत कुछ कह गयी है अजय जी।
    समझने वाले समझ गये हैं ना समझे वो होशियार हैं

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  5. झा जी,
    बहुते बढ़िया बोले हैं आप आउर अतना मीठ बोले हैं, की धमकी जैसा बुझैबे नहीं किया...

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पढ़ लिए न..अब टीपीए....मुदा एगो बात का ध्यान रखियेगा..किसी के प्रति गुस्सा मत निकालिएगा..अरे हमरे लिए नहीं..हमपे हैं .....तो निकालिए न...और दूसरों के लिए.....मगर जानते हैं ..जो काम मीठे बोल और भाषा करते हैं ...कोई और भाषा नहीं कर पाती..आजमा के देखिये..