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गुरुवार, 5 सितंबर 2019

ये उन दिनों की बात थी -वो इंग्लिश वाली मैम



शिक्षक दिवस पर प्रकाशित एक आलेख 


शिक्षकों के लिए कक्षा में दो ही विद्यार्थी पसंदीदा होते हैं अक्सर , एक वो जो खूब पढ़ते लिखते हैं और हर पीरियड में सावधान होकर एकाग्र होकर उन शिक्षकों की बात सुनते समझते हैं और फिर परीक्षा के दिनों में उनके तैयार प्रश्नपत्रों को बड़ी ही मेहनत से हल कर अच्छे अंकों से पास होते हैं | ये वाले बच्चे कक्षा दर कक्षा शिक्षकों के प्रिय और सर्व प्रिय हो जाते हैं | इनके अलावा एक दूसरे होते हैं वो जो किसी खेल कूद में ,किसी अन्य विधा जैसे चित्र कला संगीत वाद्य आदि में निपुण होते  हैं वे भी कक्षा के अलावा पूरे स्कूल के भी प्यारे होते हैं | पहले वालों का खेल कूद आदि में बहुत कुछ न कर पाना माफ़ होता है और दूसरों वालों का पढ़ाई लिखाई में चलताऊ होना | 

इनके अलावा जो तीसरे प्रकार के होते हैं जिनकी संख्या दोनों वाली श्रेणी से अधिक होती है वे भी प्यारे होते हैं मगर एक दूसरे के | मगर कभी कभी कोई शिक्षक या शिक्षिका अपने अलग अंदाज़ के कारण अलग ही बच्चों को अपना प्रिय बना लेते हैं और उससे अधिक वो उन बच्चों के प्रिय हो जाते हैं | ऐसी ही थीं हमारी आठवी कक्षा की एडगर मैम , उनका नाम क्या था न उस समय पता था न ही आज तक पता चला | मगर अंग्रेजी भाषा के कमज़ोर विद्यार्थी उन्हें डर के मारे अजगर मैम कह कर पुकारते थे | कक्षा आठ में पहला परिचय और पहला ही पीरियड इस अंगरेजी और एडगर मैम से हुआ | हमारा और उसमें भी मेरा विशेष रूप से इसलिए हुआ कि उन बच्चों ,जो कक्षा में जोर जोर से पढ़ने के डर के मारे पसीने पसीने हो जाते थे ,उन बच्चों में से एक बच्चा मैं भी था | 

पहला सबक मिला एक डिक्शनरी खरीद कर अगले दिन से कक्षा में लाने का आदेश (डिक्शनरी अब तक मेरे पास है ,और अंग्रेजी से अंग्रेजी भाषा के शब्दार्थ वाली है ) फिर उसके बाद तो शायद ही कोई पीरियड ऐसा गुजरता हो जब बीच कक्षा में खड़े होकर ,जहाँ से मुझ से पहले वाले सहपाठी ने ख़त्म की वहीं से , पाठ को जोर जोर से पढ़ने का अनवरत अभ्यास | पहले पहल बड़े अक्षरों को एक बार में भी न पढ़ पाने ,उच्चारण का पूरा क्रिया कर्म कर डालने के कारण मनोरंजन का पात्र बने हम कब धीरे धीरे अंग्रेजी पढ़ने समझने और उसे बेहतर करने में पारंगत हुए पता ही नहीं चला | दसवीं कक्षा में आकर भी अंग्रेजी ने नहीं डराया जो हलकान किया वो कम्बख्त गणित ने ही किया | 

असली कमाल तो शुरू हुआ कक्षा 11वीं में जहां इस गणित विज्ञान के चक्रव्यूह से निकल कर अपने पसंदीदा विषयों हिंदी अंग्रेजी इतिहास अर्थशास्त्र राजनीतिशास्र व  मनोविज्ञान जैसे विषयों को पढ़ने समझने का मौक़ा मिला | ये एडगर मैम द्वारा पढ़ाए गए और उससे अधिक उनके द्वारा जगाए आत्मविश्वास का ही परिणाम था कि मेरे जैसा विद्यार्थी स्नातक में अँग्रेजी प्रतिष्ठा के साथ अपने महाविद्यालय में दूसरे स्थान पर उत्तीर्ण हो सका | आज भी मन ही मन मैं उनको बार बार प्रणाम करता हूँ और शायद ही कोई दिन जाता हो जब मैं उन्हें न याद करता होऊं | बच्चों को अपनी आठवीं कक्षा की वो डिक्शनरी दिखाते ही उनकी प्रतिक्रया देखने लायक होती है | 

ये उन दिनों की बात थी 

बुधवार, 21 अगस्त 2019

दोस्ती ज़िंदगी बदल देती है




कहते हैं कि संगत का असर बहुत पड़ता है और बुरी संगत का तो और भी अधिक | बात उन दिनों की थी जब हम शहर से अचानक गाँव के वासी हो गए थे | चूंकि सब कुछ अप्रत्याशित था और बहुत अचानक हुआ था इसलिए कुछ भी व्यवस्थित नहीं था | माँ और बाबूजी पहले ही अस्वस्थ चल रहे थे | हम सब धीरे धीरे आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे थे और भरसक प्रयास कर रहे थे कि किसी तरह से सब कुछ बिसरा कर आगे बढ़ा जाए |
चूंकि शहर से अचानक आया था और तरुणाई की उस उम्र में वहां तब तक कोई दोस्त नहीं बन सका था | गाँव के बहुत से अनुज जिनमें बहुत से चचेरे भाई थे वे सब दोस्त की तरह होते जा रहे थे | गाँव में होने के बावजूद आदतन पहनवा आदि शहरी जैसा ही था | शर्ट को पैंट के अंदर रखना , बेल्ट लगाना , गाँव से बाहर जाते समय जूते पहनना | कुल मिलाकर कोई दूर से ही देख कर समझ सकता था कि हम ग्रामीण परिवेश से अलग हैं | यही बात उस समय गाँव के कुछ हमउम्र लड़कों को नहीं भा रही थी |
इनमें से एक युवक थे संजीव ,जिनके पिताजी उस समय गाँव के सबसे रसूखदार ,जमींदार और धनवान व्यक्ति थे | संजीव की परवरिश लाड प्यार से हुई थी और बोर्डिंग स्कूल आदि में भी रहे थे सो ज़ाहिर तौर पर बहुत अधिक शरारती , उद्दंड थे | छोटी छोटी बातों पर मारपीट कर लेना झगडा कर लेना उनकी आदत थी | हमारी निकटता की शुरुआत भी एक ऐसी ही झड़प से हुई जो मेरे लिए बिलकुल नई बात थी | संयोगवश संजीव के सबसे कनिष्ठ चाचा जी ,जिन्हें हम प्यार से भैया बुलाते थे , बात उन तक पहुँच गयी और उन्होंने संजीव को बहुत डाँट लगाई |
मगर असली कहानी तब शुरू हुई जब एक रात गाँव में पड़ी डकैती की घटना में उन भैया की ह्त्या कर दी गयी | पूरा गाँव उबाल खा गया और संजीव अब पहले से अधिक उग्र हो चुके थे | देशी कट्टे और जाने कैसे कैसे हथियार से लैस होकर बिलकुल दिशाहीन होकर पढ़ाई लिखाई त्याग कर एक अलग ही राह पर चल पड़े थे | अपने कुछ साथियों के साथ ही बिलकुल बिगड़ैल और असंतुलित | एक बहुत बड़ी दुर्घटना का शिकार भी और जान जाते जाते बची |
उनके चाचा और हमारे भैया के अचानक चले जाने के बाद हम दोनों के बीच का वैमनस्य जाता रहा | संजीव अब हमारे साथ ज्यादा समय गुजारते | हमारे मंडली में मैं और मेरे चचेरे अनुज समेत मेरे जैसे ही कुछ मित्र थे | हम शाम को बैठ कर बातें करते ,इधर उधर ,गाँव घर ,राजनीति ,समाज ,काली पूजा आदि की | धीरे धीरे संजीव ने अपने उन बिगड़ैल साथियों के साथ करीबी कम कर हमारे साथ नज़दीकी बढ़ा ली | चूंकि घर पर उनके लिए हमेशा चिंता बनी रहती थी सो हम भी यही कोशिश करते कि वो घर पर ज्यादा समय दें | हम खुद भी झिझकते हुए उनके घर पर जाने लगे | एक दिन संजीव के पिताजी (हमारे विद्या भैया ) ने कहा कि ,जब से संजीव आप लोगों के साथ समय बिताने लगा है मेरी चिंता उसको लेकर थोड़ी कम हो गई है | सच कहूं तो निश्चिंत सा रहने लगा हूँ | वो उनसे ज्यादा हमें संतोष देने वाली बात थी |
बाद में हम एक साथ काँवड़ लेकर वैद्यनाथ धाम जाते रहे तो कभी उनकी छोटी बहन के विवाह में हम सब संजीव के साथ कंधे से कन्धा मिला कर ऐसे डटे कि ग्रामीण भी भौंचक्के रह गए | उन दिनों उनके विवाह में जाने के लिए अपनी ज़िद पर वे हमारे लिए अलग से एक कार का इंतज़ाम कर बैठे | आज संजीव गृहजिले मधुबनी में एक रसूखदार भू व्यवसायी के रूप में स्थापित हैं | अपने छोटे से परिवार में दो सुपुत्रों के साथ पूर्ण गृहस्थ जीवन बिता रहे हैं | संजीव के बाबूजी हमारे विद्या भैया दस वर्षों तक गाँव के मुखिया रहे व अब संजीव की माता जी हमारे गाँव की मुखिया हैं |
संजीव की दिलेरी , साहस और जीवटता को यदि उस समय गलत दिशा में जाने से नहीं रोका जा पाता तो ये कहानी मैं आपको नहीं सुना पाता। ......... हाँ ये उन दिनों की बात थी

शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

वीसीडी और तीन पिक्चरों वाली रात ................




अब यदि आज के बच्चों से आप ये कहिएगा कि एक ज़माने में हम मुहल्ले के उस इकलौते घर , जिसमें ब्लैक एंड व्हाइट टीवी होता था , उस घर में रविवार को नहा धो कर टीवी के आगे बिछाई गई दरी चादर , न भी हो तो क्या गम था , पर जम जाने की कशिश बयां करने से परे का आनंद था , टीवी की स्क्रीन दिखाई देनी चाहिए थी और आवाज़ बराबर सुनाई देनी चाहिए थी बस  । और अगर खुशकिस्मती से मुहल्ले का वो इकलौता घर आपके किसी जिगरी दोस्त का निकल जाए तो फ़िर तो आपकी बल्ले बल्ले , समझिए कि दोस्त के साथ कुर्सी सोफ़े या उसकी चौकी पर उसके साथ बैठ कर आपको छब्बीस जनवरी की परेड को वी आई पी पंडाल में बैठ के देखने टाईप की फ़ीलींग आ सकती थी । और हमारे उन दिनों के दोस्त खूब गुजरे होंगे कि उन दिनों जिसके पास क्रिकेट का बैट होता था उसके कैप्टन बनने के चांस ज्यादा होते थे , और उसी तरह जिसके घर पे संडे को टीवी देखना तय था खेल में उसका एक आध बार ज्यादा आउट होना कोई बुरी बात नहीं थी । और हिम्मत की दाद तो ये सुनकर दी जा सकती है कि , बीच कार्यक्रम में "रुकावट के लिए खेद है " को हम आधा आधा घंटा यूं अपलक निहारते थे कि मानो एक सीन भी निकलना नहीं चाहिए । 
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ब्लैक एंड व्हाइट टीवी को धक्का मारा हमारे अप्पू जी की पूंछ और सूंड ने । जी हां भारत में रंगीन टेलीविज़न का चलन 1982 में भारत में आयोजित पहले एशियाड खेलों के आयोजन के साथ ही हुआ था । रामायण और महाभारत सरीखे धारावाहिक यकायक ही ज्यादा चमकदार दिखने लगे थे । मगर टीवी के साथ जुडी यादों का जब जब ज़िक्र आएगा तब तक उसके साथ थोडे दिनों के बाद आया वो एक रात के लिए किराए पे  वीसीडी और तीन वीडियो कैसेट लाकर पूरी रात जागकर उसे देखने का दौर । वाह क्या दौर था वो भी , एक रात में तीन तीन फ़िल्में वो भी लगातार , बिना किसी ब्रेक श्रेक के । 
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अक्सर शनिवार की रात को चुना था ऐसी घनघोर फ़िल्मी रात के लिए , वैसे बाद में किसी खास अवसर , मौके पर भी एक तय कार्यक्रमों और सबसे ज्यादा पसंद किए जाने वाले आयोजनों में से एक यही होता था वीसीडी किराए पे लाओ , और उसके साथ अपने पसंद की तीन वीडियो कैसेट खरीद के लाओ , पूरी रात दीदे फ़ाड के उन तीनों पिक्चरों को एक सांस में देख जाओ , हालांकि जो चतुर होते थे वे चार ले आते थे क्योंकि किराए पे जा जाकर घिसी हुई वीडियो सीडी कई बार ऐन मौके पर धोका दे जाती थी और कई बात तो ससुरा वीसीडी प्लेयर ही अड कर टैं बोल जाता था , दिल खोल के गालियां पडती थी वीडियो कैसेट लाइब्रेरी चलाने वाले को । 
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लेकिन सिर्फ़ ऐसा नहीं था कि ये इत्ता आसान सा आयोजन होता था जी , पहले तो घर में इसी बात पर महाभारत छिड जाती थी कि वो तीन पिक्चरें कौन सी होंगी , एक दिन पहले से ही घनघोर माथापच्ची के बाद एक लिस्ट फ़ाइनल की जाती थी कम से कम पांच सात पिक्चरों वाली , उन्हें वरीयता के क्रम से टिकाया जाता था , मसलन अमिताभ बच्चन या धरमिंदर  पाजी की नई वाली फ़िल्म अगर उपलब्ध नहीं है तो मिठुन दा वाली ली जा सकती है । मम्मी , चाची , मासी के सामाजिक फ़िल्मों की लिस्ट में से एक का सलेक्शन नहीं किए जाने पर वीटो किया जा सकता था ,मगर उसका तोड बच्चे यूं निकालते थे कि वीडियो लाइब्रेरी से वापस आने पर कह देते थे कि आपकी वाली फ़िल्म तो मिली ही नहीं , बदले में अपनी वाली पसंद की ही दोनों उठा लाए । 
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सबको पता होता था कि कौन कौन सी संभावित पिक्चरें लाई और लगाई जाने की संभावना है इसलिए शाम से ही कमर कस के तैयार हो लेते थे । उस शाम को खाना जल्दी खा लिया जाता था अमूमन दिनों से काफ़ी पहले ताकि जल्दी से निबट कर पहली वाली फ़िल्म को जल्दी शुरू किया जा सके । और खूब हो हल्ले के बाद सबसे ज्यादा हल्ले से  ही ये निर्णय होता था कि बच्चों को पसंद आने वाली पहले चलाई जाएगी । इसके बाद अगली फ़िल्म वही सामाजिक पारिवारिक घरेलू , राज किरन , फ़ारुक शेख और अमोल पालेकर जी वाली चलाई जाती थी ,सबसे अंत में जो बचती थी वो । अगर कभी खुशकिस्मती और बदकिस्मती से एक ही अभिनेता की दो या कभी कभी तीनों ही फ़िल्में हुईं तो मजाल है कि सुबह तक ये याद हो कि अमिताभ बच्चन ने कादर खान का मुंह किसमें तोडा था और अमरीश पुरी के दांत किसमें । 
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इससे जुडा एक दिलचस्प किस्सा मुझे ये भी याद आ रहा है कि उन दिनों एक बार मांसी के गांव में मौसेरे भईया लोगों ने एक छोटा साला हॉलनुमा कमरा किराए पे लेकर , लगातार दस दिनों तक वीडियो सीडी प्लेयर किराए पे लेकर , टिकट लगा कर बहुत सारी फ़िल्में दिखाईं थीं । इस वीडियो फ़िल्मोत्सव के बीच में पहुंचे मुझे एक दिन ये जिम्मेदारी दी गई कि मैं रिक्शे पे बैठ कर शाम को दिखाई जाने वाली पिक्चर "सन्यासी" का प्रचार कर आउं । मैंने बिना जाने समझे आव देखा न ताव और खूब ढिंढोरा पीट आया , मासियों , नानियों और मामियों को भी बडा घनघोर वर्णन कर आया कि , कित्ती धार्मिक फ़ीलिंग वाली पिक्चर है , बाद में वीसीडी कवर पर उसका पोस्टर देख कर मैं समझ गया था कि शाम को पिक्चर देखने के वाद वे सब मुझे ही ढूंढने वाली थीं ....





सोचता हूं कि कहां वो आनंद वो रोमांच अब मिलता है चकाचौंध भरे महंगे मल्टीप्लैक्स में फ़िल्म देखने में भी 
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