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रविवार, 29 मार्च 2020

महामारी में महातमाशा





पहला दिन : बंदी से पहले और बंदी वाले पहले दिन लोगों ने दुकानों पर                         मेला लगाया
दूसरा दिन : दूसरा दिन ,पुलिस ने उठक बैठक करवाते मुर्गा बनाते ,लाठी                     भाँजते करतब दिखाया
तीसरा दिन : मीडिया ने अचानक ही लोगों को भूखे मरते तड़पते बिलखते                     वाला तमाशा दिखाया
चौथा दिन :   आखिरकार जनता ने भी सब कुछ भूल भाल कर सड़कों पर                     आकर मजमा लगाया |

लब्बो लुआब ,ये देश ,प्रशासन ,व्यवस्था ,सरकारें ,स्वयं सेवक और सबसे अधिक आम लोग अभी तक भी किसी भी कैसी भी आपदा से निपटने की तैयारी ,बचाव आदि तो दूर अभी तक किसी को भी आपदा के समय किये जाने वाला व्यवहार और सचेतता का भी पता नहीं है |

पश्चिम के देश जो भौगोलिक परिवेश के कारण भारत से कहीं अधिक भयंकर प्राकृतिक आपदाएं झेलते हैं बार बार भुगतते हैं ,मगर हर बार सबक सीख कर अगली आपदा के लिए खुद को और पूरे समाज को भी तैयार करते हैं | बावजूद इसके कि उन  देशों में तकनीक और संसाधन की प्रचुर सुलभता के बावजूद वे कभी लापरवाह या उपेक्षित नहीं होते | इसके ठीक उलट भारतीय अवाम ऐसे समय भी अपने उद्दंड स्वभाव और व्यग्रता तथा अशिक्षा के कारण ,प्रशासन व सरकार द्वारा की गयी थोड़ी बहुत की गई तैयारियों को भी पलीता लगा देते हैं |

वर्तमान में सिर्फ दो ही सूरतों में इस महामारी के बड़े प्रकोप से बचने की संभावना है | पहली ये कि सैकड़ों लाखों के इस समूह में मरीज़ और पीड़ित की संख्या नगण्य हो या बहुत ज्यादा कम हो | आगे जाकर समाज में घुलमिल कर उसे और अधिक विकराल रूप में पहुंचाने से पहले ही इनकी जांच व् पहचान सुनिश्चित करना |

दूसरी ये कि फिलहाल मौसम में जो अनिश्चितता बनी हुई है वो स्थिर होकर ,सामन्यतया इस ऋतू के औसत तापमान और उससे अधिक तक जितनी जल्दी से जल्दी पहुँच सके तो इसके प्रसार की रफ़्तार और ज़द में थोड़ी मंथरता आने की संभावना है |

ये देश हमेशा से भागवान भरोसे ही छोड़ा जाता रहा है ,भगवान भरोसे ही चलता रहा है और भविष्य में भी इस स्थिति में कोई बहुत बड़ा फर्क आएगा ऐसा लगता नहीं है | आने वाले सात दिनों में स्थिति बिल्कुल स्पष्ट हो जाएगी कि हम खराब से उबर कर सब ठीक होने की हालात में जाएंगे या इससे भी बदतर हालातों में पहुंचेंगे |





शनिवार, 13 सितंबर 2014

प्रकृति के खिलाफ़ नहीं प्रकृति के साथ चलना होगा





पिछले वर्ष जून में जब अचानक ही केदारनाथ की आपदा सब पर कयामत बनकर टूटी तो उस त्रासदी के प्रभाव से देश भर के लोगों ने झेला । कुदरत के इस कहर से जाने कितने ही परिवार हमेशा के लिए गुम हो गए , कितने बिखर कर आधे अधूरे बच गए , जाने कितने ही परिवार में बचे खुचे लोग मानसिक अवसाद से ग्रस्त होकर रुग्ण होकर रह गए । केदारनाथ त्रासदी के बाद इस दुर्घटना के कारणों पर किए गए शोध , विश्लेषण आदि से ये तथ्य निकल कर सामने आया था और यदि न भी निकलता तो भी ये तो अब खुद भी इंसान बहुत अच्छी तरह से समझ और जान रहा है कि प्रकृति द्वारा कुछ भी अनियमित करने होने घटने के पीछे सबसे बढा घटन वो मानवीय क्रियाकलाप ही होते हैं जो प्रकृति के प्रतिकूल हैं ॥
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अभी पिछला घाव ठीक से भरा भी नहीं था किस इस वर्ष फ़िर से धरती का स्वर्ग कहलाने वाला जम्मू कशमीर पिछले कई दशकों में पहली बार आई जल प्रलय के विप्लव से बुरी तरह त्रस्त हुआ है । पिछले दस दिनों से लगातार , सरकार , प्रशासन , आपदा नियंत्रक , भारतीय सेना और आर एस एस जैसे स्वयं सेवी संगठन वहां पीडित क्षेत्र में फ़ंसी हुई जिंदगियों को बचाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि लोगों को काल के गाल में समा जाने से बचाया जा सके । स्थिति इतनी भयावह और विकट है कि इसे राष्ट्रीय आपदा मानते हुए पूरा देश सहायता के लिए आगे आया है ॥ एक बार पुन: वही विमर्श , वही आंकडे , आकलन ..........॥
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आखिर कब ..कब हम इस बात को अच्छी तरह समझेंगे कि हम इस प्रकृति जो कि जल , थल , वायु, अगिन , मिट्टी ,पर्वत , नदी , पेड आदि तत्वों के समन्वय से सिंचित होती रही है और लाख उन्नति और आधुनिकता के बावजूद भी , जी हां अब भी मानव/इंसान प्रकृति के उपस्थिति तत्वों में से बहुत ही सूक्ष्म और कोमल है शायद यही वजह है कि प्रकृति के हल्के से हल्के दबाव के आगे वो तिनके की तरह बिखर जाता है । 

विश्व में बढती प्राकृतिक आपदाओंने इंसानों को बहुत कुछ सिखाया जिसमें से सबसे अधिक ये कि बदलती हुई पारिस्थितिकी के अनुसार मानव जीवन ने अपने आपको बदला और ढाला , और ये प्रक्रिया युगों युगों से सतत चलती चली आ रही है । अब तो भू विज्ञानियों , प्राणी विज्ञानियों और बहुत से संबंधित विज्ञानों ने निरंतर खोज़ कर ऐसे साक्ष्य जुटा लिए हैं जो स्पष्टत: ये प्रमाणित करता है कि इंसानी सभ्यता बहुत ही प्राचीन समय से प्रकृति के साथ संघर्षरत होते हुए भी उसके साथ बराबर तालमेल बिठाती आई है । और इतिहास इस बात का भी गवाह रहा है कि जब जब इंसान ने अपनी जिद , अपने अन्वेषण , अपनी आवश्यकता के कारण , प्रकृति की नैसर्गिक  व्यवस्था में सेंध लगाने की कोशिश की है , प्रकृति खुद उसे संतुलित कर लेती है ॥
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प्रकृतिशास्त्री पिछले दो दशकों से ,या शायद तभी जब से इंसान ने अपनी सुविधा के लिए प्रकृति के मिज़ाज़ के खिलाफ़ जाकर छेडछाड शुरू की तभी से बार बार इस  बात पर चिंता जताते हुए नसीहत स्वरूप ये कहते रहे हैं कि जीवन जीने के रास्ते  प्रकृति के खिलाफ़ नहीं प्रकृति के साथ तलाशे जाने चाहिए । इतने बरसों बाद भी जहां एक तरफ़ हम इंसान , न तो प्रकृति के तत्वों का सम्मान करते हैं और न ही  उन्हें सहेजने और संरक्षित करने के लिए रत्ती भर  भी गंभीर है । विशेषकर पश्चिमी देशों की तुलना में अभी देश में कुछ भी नहीं सोचा किया गया है अब ये तो खुद सरकार , समाज , और आपको हमें तय करना है कि हमें भविष्य में ऐसी त्रासदियों के लिए तैयार रहना चाहिए या हमें अभी से चेत कर प्रकृति के साथ सहजीवन पद्धति का विकास करना चाहिए ....प्रकृति सोच चुकी है , अब सोचना आपको और हमें है ............

मंगलवार, 25 जून 2013

आपदा , अमानवीयता और ब्रांडेड राहत




शुरू में जब समाचार माध्यमों में उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आफ़त के बारे में अकल्पनीय रूप से दुखद खबरें देखने सुनने को मिली तो अहसास हो गया कि देवभोमि फ़िर एक बार एक बहुत बडी आपदा की चपेट में आकर हज़ारों लोगों के असमय काल-कवलित हो जाने का कारण बनी । इसके बाद प्रशासन की काहिली और गैर जिम्मेदाराना सोच तथा रवैय्या जो बचे हुए लोगों को जल्दी नहीं बचाए जा सकने के कारण उजागर हो गया ये अगली आपदा साबित हुई । किंतु इसके बाद समाचार माध्यमों में जिस तरह से कुछ लोगों द्वारा लूट-मार , हिंसा , साधुओं तक द्वारा चोरी लूट और सबसे घृणित घायल /मृत महिलाओ/युवतियों का बलात्कार किए जाने की खबरें देखने पढने सुने को मिलीं उससे प्राकृतिक आपदा से ज्यादा दुखद अमानवीय आपदा लगी । इस कुकृत्य के बारे में कल्पना से भी घिन्न और उबकाई आती है । 

भारतीय समाज जितना पहले से आपदाओं को झेलता रहा है लगभग उतना पहले से ही आपदा से निपटने के लिए समाज की स्वाभाविक एकजुटता भी दिखती रही है । सुखद बात ये है कि जहां कुछ इंसान अमानवीयता की सारी हदों को भी पार करके हैवान सरीखे हो गए हैं वहां अब भी अधिकांश समाज सुख-दुख को परस्पर साझा करने की रवायत निभा रहा है हां , उत्तराखंड में जारे राहत सहायता अभियानों में बाज़ारवाद का प्रभाव भी देखने को मिल रहा है जहां ब्रांड और बैनर चमकाने की होड भी मची हुई है ।
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