रविवारीय चिंतन
ब्लॉग्गिंग के जमाने में एक शब्द बहुत प्रचलित हुआ था या किया गया था और फिर उस पर भारी बहस चली थी।
वो शब्द था -घेटो। जी हाँ घेटो
किसी भी बने हुए बड़े समूह , संस्था से जुड़े लोगों में से , सिर्फ कुछ गिने चुने लोगों द्वारा , जाने अनजाने आपसी संवाद और विमर्श का एक घोषित अघोषित सा बना या बन गया एक विशेष गुट।
इस गुट के बनते ही समूह के बाकी सदस्यों , साथियों की बातों पोस्टों प्रतिक्रियाओं आदि से इस घेटो को कोई लेना देना नहीं रहता। जाने अनजाने ये गुट, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सिर्फ एक दुसरे की गतिविधियों और बातो में ही रूचि रखता और दिखाता है।
घेटो की दूसरी खासियत ये होती है कि घेटो के किसी भी सदस्य से कोई भूल चूक लेनी देनी हो जाए तो फिर पूरा घेटो या तो उस पर चुप्पी लगा जाता है या फिर लामबंद हो जाता है।
ब्लॉग्गिंग के दिनों में हुई ब्लॉग बैठकों में भी काफी कुछ हुआ और होता रहा , और कहने को आभासी दुनिया में परिचित हुए , मित्र बने लोग जल्दी ही एक दूसरे के ऐसे कट्टर विरोधी हो जाते कि फिर उनकी दिशा और दशा ही बदल जाती।
इन दिनों फेसबुक का कर फेसबुक पर विभिन्न समूहों का समय चल रहा है , अच्छा या बुरा जो भी , और इन सबमें भी धीरे धीरे ठीक वही सब देखने पढ़ने सुनंने को मिल रहा है जो कभी हमें हिंदी ब्लॉग्गिंग करते हुए महसूस हुआ करता था।
अपने इन्हीं अनुभवों के आधार पर एक बात मैंने कहीं लिखा था कि सच कहूँ तो मैं अपने किसी भी आभासी मित्र से कभी प्रत्यक्ष रूप से नहीं मिलना चाहता। असल में किसी के भी शब्दों और छवियों को देखकर हमारे मन में किसी की भी जो छवि बनती है या हम जाने अनजाने बना लेते हैं वास्तविकता जरूर उससे कहीं न कहीं थोड़ा अंतर रखती है और यही अंतर कब मतान्तर बन जाता है पता ही नहीं चलता।
ऑरकुट , गूगल बज , जैसे जाने कितने ही सोशल नेट्वर्किंग मंच आए और कालान्तर में अपना जो भी जैसा भी प्रभाव छोड़ कर सब समय की गर्त में चले गए और भुला दिए गए , एक दिन ये फेसबुक भी चला जाएगा और हम भी।