वाह भईये , भई बहुत अच्छे जा रहे हो । यूं ही सधे सधे कदमों से आगे बढते चलो , बेशक इस लडाई का अभी कोई तुरंत और त्वरित सुखद परिणाम निकल कर सामने नहीं आए , इसके बावजूद, हां इसके बावजूद भी ये जो समीकरण बदलने की शुरूआत तुमने की है उसका प्रभाव देखने के लिए सिर्फ़ इतना ही देखना काफ़ी होगा कि बिना खानदान , पुश्तों की राजनीतिक बपौती , बिना किसी बडे बडे आपराधिक दबंगई के रिकार्ड के तुमने न सिर्फ़ बरसों से चली आ रही सोच और निष्क्रियता को थोडा सा तो झटक दिया है । सालों से सोई सोच को तंद्रा से उठाने के लिए इतना झटका पर्याप्त तो है ही ।
आखिरकार वही हुआ जिसका डर था , डर सियासत और सियासतदानों को था , वे अक्सर ही नायक फ़िल्म के अमरीश पुरी बनकर बात बेबात चिल्ला कर कहते थे , अबे यूं न समझो हमें जनता ने चुन कर भेजा है , हम जनता की आवाज़ हैं , जो कहते हैं जो करते हैं समझो जनता कहती है जनता करती है , बिल्कुल राजा बाबू वाली फ़ील सी आने लगती थी , फ़िर जब जरा सा आइना दिखाया तो बिलबिला कर बोल बैठे , चलो आओ जाओ फ़िर मैदान में । लगता तो ये है कि अब ये राजनीतिक पार्टियां यही सोच रही होंगी कि जब आज तक देश की जनसंख्या बढते हुए जाने कितनी गुना हो गई है और ऐसे में भी देश चलाने के लिए सिर्फ़ उतने ही चुने हुए नगीनों के कंधों पर यकीन किया जाना चाहिए , ज्यादा कंधें ज्यादा जिम्मेदारी उठा सकते हैं , लेकिन यहां कंधों की नहीं सिर्फ़ जेबों की जरूरत ही मुख्य रही थी , ऐसे में भी प्रतिनिधियों ने कंधों का दायरा ज्यादा नहीं बढने दिया । शायद फ़िर दूसरी ये वजह रही हो कि , सत्र के दौरान वैसे ही क्या कम हाट बाज़ार मंडी वाली भावना दिखाई देती है जो और जनप्रतिनिधियों की गुंजाईश बनाएं ।
वाह भईये , कहां तो जंतर मंतर से मुट्ठी भर सेना के सहारे सीधा सियासत को ललकार दिया , ईश्वर ही जानता है कि उस समय जंतर मंतर पर मौजूद एक एक व्यक्ति ,देश और व्यवस्था को बदलने के जिस ज़ज़्बे को जी रहा था वो यदि पश्चिमी या अरब देशों की तरह हिंसक हो उठता तो जनलोकपाल से पहले सी सरकार का जनाजा उठा के मानता । सिद्धांत और विचारों के कारण एक हुए लोग , फ़िर किसी वैचारिक भिन्नता के कारण अलग अलग रास्तों पर चलने को उद्दत हुए । एक ने चुना उस चुनौती को सीधे सियासत के नुमाइंदों ने की थी , दूसरे ने चुना वही जन आंदोलन और सामाजिक जागरूकता का रास्ता । लेकिन दोनों की इस फ़ूट को इस लडाई की विफ़लता करार देने वाले ये भूल कर बैठे कि इस तरह तो उनके खिलाफ़ दो मोर्चों पर लडने वाले उठ खडे हुए हैं , जिनकी लडाई बेशक अलग हो मगर मकसद तो वही है । और फ़िर क्या ये अवश्यंभावी नहीं है कि नीयत मिलने वाले लोगों के पुन: मिल बैठने की गुंज़ाईश ज्यादा प्रबल है । वैसे सोच कर देखिए कि , यदि जनलोकपाल की लडाई को शुरू करने वाली वो सिविल सोसायटी कोई एक रास्ता ही चुन कर उस पर अपनी चोट प्रबलता से करती तो क्या सियासत और सरकार इतने दिनों तक भी चैन से रह सकते थे ।
अब एक नया हल्ला मच और मचाया जा रहा है , वादे कर तो दिए मगर पूरे नहीं कर पाएंगे इसी वजह से तो ये नए नए शहसवार मैदाने सियासत में कूदने से डर रहे हैं , ललकारने पर कोई खुद सी एम बनकर समस्याओं को हल करे ऐसा तो सिर्फ़ नायक सिनेमा में हो सकता है ,असल में ऐसा कोई नायक समाज में आज मौजूद नहीं है । गौर से देखिए , आज सरकार , समाज और थोपी गई नीतियों के खिलाफ़ उठ कर खडे होने और लडने वालों की तादाद बढती ही जा रही है , समय आ रहा है जब हर उस एक व्यक्ति को निशाने पर लिया जाएगा और लिया जाना चाहिए जिसकी आमदनी से कहीं बडी और ऊंची उसकी औकात हो जाए । क्या नहीं हो सकता , बिजली , पानी , सडकें , शौचालय , स्कूल , अस्पताल ...एक एक चीज़ हो सकती है , करोडों अरबों कमाने वालों की पूरी फ़ौज़ खडी है , सभी दो नंबरियों की सारा माल पत्तर जब्त करके झोंक दो सबके लिए । इतने स्कूल इतने अस्पताल इतने अदालत बना दो कि गरीब को पढने के लिए , ईलाज़ और न्याय के लिए बरसों तक सरकार समाज का मुंह नहीं ताकना पडे ।
सबसे अहम बात , ये सब तभी संभव है जब लोकसेवक बन कर काम करना , नेता मंतरी बन कर नहीं । ध्यान रहे कि ये जनसेवा की कुर्सी सिर्फ़ पांच बरसों के लिए मिली है वो भी एडहॉक बेसिस पे , इसलिए बिंदास और बेखौफ़ करो अपना काम , ये ध्यान में रखते हुए कि जनता खुद अब सी आर लिख रही है सबका । वैसे तो ताज़ा घटनाक्रम और पल पल बदलते तेवर यही बता रहे हैं कि आम आदमी को सिंहासन पर बैठा हुआ देखने का ताव ये सभी राजनीतिज्ञ ज्यादा दिनों तक नहीं सह सकेंगे , लेकिन जब तक चले ये रस्साकशी , तुम थामे रहना , झुकना मत , टूटना मत ................
आखिरकार वही हुआ जिसका डर था , डर सियासत और सियासतदानों को था , वे अक्सर ही नायक फ़िल्म के अमरीश पुरी बनकर बात बेबात चिल्ला कर कहते थे , अबे यूं न समझो हमें जनता ने चुन कर भेजा है , हम जनता की आवाज़ हैं , जो कहते हैं जो करते हैं समझो जनता कहती है जनता करती है , बिल्कुल राजा बाबू वाली फ़ील सी आने लगती थी , फ़िर जब जरा सा आइना दिखाया तो बिलबिला कर बोल बैठे , चलो आओ जाओ फ़िर मैदान में । लगता तो ये है कि अब ये राजनीतिक पार्टियां यही सोच रही होंगी कि जब आज तक देश की जनसंख्या बढते हुए जाने कितनी गुना हो गई है और ऐसे में भी देश चलाने के लिए सिर्फ़ उतने ही चुने हुए नगीनों के कंधों पर यकीन किया जाना चाहिए , ज्यादा कंधें ज्यादा जिम्मेदारी उठा सकते हैं , लेकिन यहां कंधों की नहीं सिर्फ़ जेबों की जरूरत ही मुख्य रही थी , ऐसे में भी प्रतिनिधियों ने कंधों का दायरा ज्यादा नहीं बढने दिया । शायद फ़िर दूसरी ये वजह रही हो कि , सत्र के दौरान वैसे ही क्या कम हाट बाज़ार मंडी वाली भावना दिखाई देती है जो और जनप्रतिनिधियों की गुंजाईश बनाएं ।
वाह भईये , कहां तो जंतर मंतर से मुट्ठी भर सेना के सहारे सीधा सियासत को ललकार दिया , ईश्वर ही जानता है कि उस समय जंतर मंतर पर मौजूद एक एक व्यक्ति ,देश और व्यवस्था को बदलने के जिस ज़ज़्बे को जी रहा था वो यदि पश्चिमी या अरब देशों की तरह हिंसक हो उठता तो जनलोकपाल से पहले सी सरकार का जनाजा उठा के मानता । सिद्धांत और विचारों के कारण एक हुए लोग , फ़िर किसी वैचारिक भिन्नता के कारण अलग अलग रास्तों पर चलने को उद्दत हुए । एक ने चुना उस चुनौती को सीधे सियासत के नुमाइंदों ने की थी , दूसरे ने चुना वही जन आंदोलन और सामाजिक जागरूकता का रास्ता । लेकिन दोनों की इस फ़ूट को इस लडाई की विफ़लता करार देने वाले ये भूल कर बैठे कि इस तरह तो उनके खिलाफ़ दो मोर्चों पर लडने वाले उठ खडे हुए हैं , जिनकी लडाई बेशक अलग हो मगर मकसद तो वही है । और फ़िर क्या ये अवश्यंभावी नहीं है कि नीयत मिलने वाले लोगों के पुन: मिल बैठने की गुंज़ाईश ज्यादा प्रबल है । वैसे सोच कर देखिए कि , यदि जनलोकपाल की लडाई को शुरू करने वाली वो सिविल सोसायटी कोई एक रास्ता ही चुन कर उस पर अपनी चोट प्रबलता से करती तो क्या सियासत और सरकार इतने दिनों तक भी चैन से रह सकते थे ।
अब एक नया हल्ला मच और मचाया जा रहा है , वादे कर तो दिए मगर पूरे नहीं कर पाएंगे इसी वजह से तो ये नए नए शहसवार मैदाने सियासत में कूदने से डर रहे हैं , ललकारने पर कोई खुद सी एम बनकर समस्याओं को हल करे ऐसा तो सिर्फ़ नायक सिनेमा में हो सकता है ,असल में ऐसा कोई नायक समाज में आज मौजूद नहीं है । गौर से देखिए , आज सरकार , समाज और थोपी गई नीतियों के खिलाफ़ उठ कर खडे होने और लडने वालों की तादाद बढती ही जा रही है , समय आ रहा है जब हर उस एक व्यक्ति को निशाने पर लिया जाएगा और लिया जाना चाहिए जिसकी आमदनी से कहीं बडी और ऊंची उसकी औकात हो जाए । क्या नहीं हो सकता , बिजली , पानी , सडकें , शौचालय , स्कूल , अस्पताल ...एक एक चीज़ हो सकती है , करोडों अरबों कमाने वालों की पूरी फ़ौज़ खडी है , सभी दो नंबरियों की सारा माल पत्तर जब्त करके झोंक दो सबके लिए । इतने स्कूल इतने अस्पताल इतने अदालत बना दो कि गरीब को पढने के लिए , ईलाज़ और न्याय के लिए बरसों तक सरकार समाज का मुंह नहीं ताकना पडे ।
सबसे अहम बात , ये सब तभी संभव है जब लोकसेवक बन कर काम करना , नेता मंतरी बन कर नहीं । ध्यान रहे कि ये जनसेवा की कुर्सी सिर्फ़ पांच बरसों के लिए मिली है वो भी एडहॉक बेसिस पे , इसलिए बिंदास और बेखौफ़ करो अपना काम , ये ध्यान में रखते हुए कि जनता खुद अब सी आर लिख रही है सबका । वैसे तो ताज़ा घटनाक्रम और पल पल बदलते तेवर यही बता रहे हैं कि आम आदमी को सिंहासन पर बैठा हुआ देखने का ताव ये सभी राजनीतिज्ञ ज्यादा दिनों तक नहीं सह सकेंगे , लेकिन जब तक चले ये रस्साकशी , तुम थामे रहना , झुकना मत , टूटना मत ................