देखिए गौर से लिखा है झ से झा :) :) |
सितंबर का महीना बीमार और कमज़ोर होती हिंदी के लिए दंड पेलने का समय होता । एक तारीख से 14 सितंबर तक और कभी कभार तो पूरे महीने "हिंदी-हिंदी "खेलने के कई तरह के टूर्नामेंट और ट्वेंटी-ट्वेंटी (हिंदी बोले तो खेल प्रतियोगिता और बीस-बीसा ) आयोजित किए जाते हैं । इस खास मानसूनी मौसम में ,डेंगू मलेरिया से ग्रस्त जनता के साथ ये समय "हिंदी" को ग्लूकोज़ की बोतलें चढाने का भी होता है । सरकार व प्रशासन तो हिंदी के साथ ठीक वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसा कि वो आम लोगों के साथ करते हैं । आम आदमी की याद पांच बरस में एक बार आती है और हिंदी की याद बरस में एक दिन ।
हिंदी को कामकाज की भाषा बनाने की घनघोर प्रतिज्ञा सरकार ने ले तो ली मगर जब कामकाज के नाम पर सिर्फ़ घपले घोटाले ही करने होते हैं तो फ़िर क्या फ़र्क पडता है वो हिंदी में करो या किसी अन्य भाषा में । हां इस समय सरकार चाहे तो ये कह कह अपनी पीठ थपथपा सकती है कि कोयले आवंटन घोटाले से संबंधित सारी गुम हुई फ़ाइलें हिंदी में ही लिखी पढी गई थीं , अब कोई इसे गलत साबित करके दिखाए तो मानें ।
जहां तक हिंदी के साथ हुए इस तथाकथित अन्याय की बात है तो खुद अदालत के हाकिम ही कहते हैं कि कानून की दुनिया में हिंदी का क्या काम ? ठीक भी है , कानून हिंदी में होगा तो आम आदमी भी आसानी से समझ जाएगा ,जब आम आदमी कानून समझ ही जाएगा तो फ़िर तोडने से भी बच बचा जाएगा और अगर कानून नहीं टूटेगा , तोडा जाएगा तो अदालतें चलेंगी कैसे और हाकिम करेंगे क्या ??
हिंदी पर अगर कोई मेहरबान है तो वो है मोबाइल कंपनियां मगर हाय रे हिंदी की किस्मत वहां की हिंदी तो हिंदी की पूरी चिंदी कर डालने पर आमादा हैं ,जैसे ही मोबाइल खोलो ,"हाय , व्हाट्स अप्प्, और हिंदी गोल गप्प "
हालांकि हिंदी की लगातार पतली होती हालत पर ज्यादा दुबला होने की जरूरत कतई नहीं है क्योंकि हिंदी खुद दंड पेल कर कडी टक्कर दे रही है । सबूत चाहते हैं तो आप चेन्नई एक्सप्रेस को ही लीजीए न । अकेली हिंदी जब तक थी सौ करोड तक बिन्नेस का मामला पहुंचता था , मगर जैसे ही हिंदी ने तमिल के साथ दो दो हाथ , कुश्ती दंगल और प्यार किया मामला दो सौ करोड के पार और उससे भी पारमपार पहुंचता दिख रहा है । सबसे अच्छी बात तो ये हुई है कि तमिल चार छ; फ़ीट लंबी तगडी होते हुए भी सिनेमा के अंत में हिंदी उसे पटक पटक कर जीत जाती है और फ़िर खुशी खुशी दोस्ती कर लेती है ।
ठीक से खा भी तो नहीं पा रही है हिन्दी, कैसे भला सशक्त होगी।
जवाब देंहटाएंसही कह रहे हैं प्रवीण भाई आप
हटाएंहाल तो यही .... बेचारी है हिंदी अपने ही घर में ..
जवाब देंहटाएंसहमत हूं आपसे अरूण भाई
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