शुरू में जब समाचार माध्यमों में उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आफ़त के बारे में अकल्पनीय रूप से दुखद खबरें देखने सुनने को मिली तो अहसास हो गया कि देवभोमि फ़िर एक बार एक बहुत बडी आपदा की चपेट में आकर हज़ारों लोगों के असमय काल-कवलित हो जाने का कारण बनी । इसके बाद प्रशासन की काहिली और गैर जिम्मेदाराना सोच तथा रवैय्या जो बचे हुए लोगों को जल्दी नहीं बचाए जा सकने के कारण उजागर हो गया ये अगली आपदा साबित हुई । किंतु इसके बाद समाचार माध्यमों में जिस तरह से कुछ लोगों द्वारा लूट-मार , हिंसा , साधुओं तक द्वारा चोरी लूट और सबसे घृणित घायल /मृत महिलाओ/युवतियों का बलात्कार किए जाने की खबरें देखने पढने सुने को मिलीं उससे प्राकृतिक आपदा से ज्यादा दुखद अमानवीय आपदा लगी । इस कुकृत्य के बारे में कल्पना से भी घिन्न और उबकाई आती है ।
भारतीय समाज जितना पहले से आपदाओं को झेलता रहा है लगभग उतना पहले से ही आपदा से निपटने के लिए समाज की स्वाभाविक एकजुटता भी दिखती रही है । सुखद बात ये है कि जहां कुछ इंसान अमानवीयता की सारी हदों को भी पार करके हैवान सरीखे हो गए हैं वहां अब भी अधिकांश समाज सुख-दुख को परस्पर साझा करने की रवायत निभा रहा है हां , उत्तराखंड में जारे राहत सहायता अभियानों में बाज़ारवाद का प्रभाव भी देखने को मिल रहा है जहां ब्रांड और बैनर चमकाने की होड भी मची हुई है ।