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सोमवार, 20 जनवरी 2014

विकास और विनाश के बीच (ग्राम यात्रा -III)

 पिछली बार जब गांव गया था तो मधुबनी से गांव के इस सडक जिसके बारे में मुझे बिल्कुल ठीक ठीक और शायद पहली बार ये मालूम चला कि ये बिहार का राजकीय मार्ग संख्या 52 है , माने कि राज्यों के लिए राष्ट्रीय राजमार्ग सरीखी महत्वपूर्ण , हालांकि मुझे इतना अंदाज़ा तो था कि देश की सीमा की सडकों से जुडी होने के कारण ये बहुत मुख्य महत्व वाली सडक है किंतु अपने गांव में रहने तक और खासकर इस पर पडने वाले कमाल के लकडी सीमेंट और लोहे के पुलों और साल दो साल के अंतराल पर उनका चरमराया हुआ ढांचा देखकर ऐसा कभी भीतर से महसूस नहीं हो पाया कि इतने महत्व का होगा , तो पिछली बार ये देख कर मुझे खुशी हुई थी कि इस बार सडक पर सरकार इस तरह से गंभीर होकर काम करवा रही है कि अब ये कम से कम दस सालों तक के लिए पक्का काम किया जा रहा है । एक मिशन की तरह से शुरू और पूरा किया गया ये काम नि: संदेह राज्य द्वारा करवाए गए कुछ बहुत अहम कामों में से एक अवश्य है । तो इस बार नए कमाल के मजबूत पुलों के साथ नई और एकदम सपाट बेहतरीन सडक हमें इत्ती भाई कि हमने चार दिन के डेर में दो दिन सायकल हांक दिया गांव से मधुबनी की ओर ।


यहां सायकल की कहानी सुनानी तो बनती है फ़िर चाहे पोस्ट लंबी ही  क्यों न हो जाए वैसे भी गांव की बातें जितनी होती रहें उतना अच्छा इससे हमारी गांव जाने की हुमक जोर मारती रहेगी । तो गांव के जीवन में ही हमने सायकल चलाना यानि की सीट तक सायकल चलाना सीखा था वो भी खेत की मेडों पे , अब समझ जाइए कि कित्ते घनघोर सायकलिस्ट रह चुके हैं । लगभग पांच साल तो लगातार गांव से मधुबनी तक और कुल मिलाकर तीस किलोमीटर की सायक्लिंग तो होती ही थी , वो भी कभी पुर्वा तो कभी पछिया पवन के खिलाफ़ और हमें याद है कि एक बार भाजपा की सायकल रैली में अस्सी सत्तर किलोमीटर तक नाप दिया था । और एक कमाल की याद और सुनाएं आपको कि एक बार जिद्दम जिद्द में हमने और हमारे मित्र जयप्रकाश ने मॉर्निंग शो में "लैला मजनू" देखने की ठानी और शायद सत्ताइए अट्ठाइस मिनट में पहुंच मारे थे । आज भी गांव जाने पर सबसे पहला काम यही होता है कि कभी चुपके से तो कभी बताकर मधुबनी का चक्कर मार लेते हैं वो भी सायकिल से । यूं भी सायकल से जाने पर रास्ते रिश्तेदार सरीखे लगने लगते हैं । अब तो इनपर ये दूरी स्थान सूचक शिलाएं भी खूब चमकती हैं ये बताने के लिए कि कितना कट गया कितना बचा , वैसे रोज़ जाने वालों को चप्पे चप्पे की पहचान हो ही जाती है , दूरी की भी ..







खुद ही देखिए , कित्ती लिल्लन टॉप सी लग रही है एकदम मक्खन । और हमारी सायकिल की हुमक तो छोडिए , इतने सारे टैंपो , ट्रेकर , छोटी छोटी सवारी गाडियां और जाने क्या क्या पूरे दिन रात गुडगुडाती रहती हैं । अब वो आधे एक घंटे का इंतज़ार नहीं होता है ,अब तो बस आइए धरिए और फ़ुर्रर्रर्र ....। लेकिन यहां ये बात बताना नहीं भूल सकता कि इन सडकों पर बढती रफ़्तार ने अकाल मौतों की दर में अचानक भारी इज़ाफ़ा किया है और क्यूं न हो , जब सरकार ने खुद अद्धे पव्वे , थैली , बाटली का इंतज़ाम चौक चौराहों पर खूब बढा दिया है , इसकी चर्चा आगे करूंगा विस्तार से ....आप सडक देखिए और हमारी दौडती हुई सायकल ...


 


पिछली बार जब लौटे थे तो मधुबनी और हमारे गांव के लगभग बीच में पडने वाला कस्पा , रामपट्टी का ये स्कूल भवन निर्माणरत था । अबके चकाचक बन कर तैयार मिला ...........


सतियानाश जाए , इसपर इतराते हुए हम चले जा रहे थे कि बीच में ये उधडन सी मिल गई । हमें भारी गुस्सा आया , और अब हम सोचने पर मजबूर हुए कि दो साल की घिसाई में इनका ये हाल हुआ है , दस साल तो कतई नहीं , हमने उमर जादा बढा दी क्या ???? खैर ,


इस और इन जैसी सडकों का पहला प्रभाव तो हमने आपको घुरघुराते टैंपो, मैजिक , के रूप में दिखा ही दिया अब दूसरा जो हमें महसूस हुआ उसके दो पहलू हैं । एक है बिन्नेस वाला और दूसरा एग्रीकल्चर वाला । आजकल गन्नों की पेराई और गुड की सप्लाई का बिन्नेस हमने सबसे ज्यादा पनपते देखा , ईंट के भट्ठों से भी ज्यादा का बिन्नेस । हम ऐसे ही एक पर रुके । यहां मिले युवक संतोष साव ने विस्तार से बताया कि । एक बडे कडाह में जितना गुड उबाला जाता है उसे पहले बडे पर और इसके बाद इससे छोटे पर उबाला जाता है , एक कडाही उबाले गुड से एक गुड का बडा ढेला तैयार किया जाता है । पूरे दिन में ऐसे एक पेराई ठिकाने से दस ढेले तैयार किए जाते हैं रोज़ाना। मैंने संतोष से पूछा कि क्या उन्हें राज्य की तरफ़ से कोई सहायता या प्रोत्साहन , नहीं । यदि मेवे डाल कर सुगंधित गुड बनाने का ऑर्डर मिले तो बना सकते हैं , लेकिन देसी गुड का स्वाद ही अपना होता है , उन्होंने बताया ।
आगे के रास्ते पड कमोबेश दस से भी ज्यादा मिले ऐसे ठिकाने हमें और ट्रक पर गन्ने लादने का स्थान यानि राटन भी देखा हमने । चलो शुक्र है कुछ तो मीठा मीठा चल रहा है प्रदेश में .....



सडक पर खडे ट्रैक्टर में बैठे इन बच्चों की तरफ़ जैसे ही मैंने कैमरा मोडा दोनों अकचका गए मगर मेरे कहने पर खिलखिलाने भी लगे ।

जब रास्ते में गर्रर्रर्रर्र पों होगी तो बिना तेल के राधा कैसे नाचेगी सो राजकीय पथ संख्या 52 पर आपको तेल पेट्रोल भरवाने का पंप भी मिलेगा , और उसमें पेट्रोल डीजल भी ...........

आगे सडक किनारे के मकानों वाली दीवारों पर हमें इस शैक्षणिक  संस्थान के विज्ञापन के अलावा भी बहुत सारे विज्ञापन पढने को मिले , यानि कि कुछ तो बदल रहा है और बढिया बदल रहा है , ...



मधुबनी बाज़ार में भी खूब रौनक देखने को मिली । और लगभग उतनी ही भीडभाड भी । फ़ोटो मैने बाज़ार की इसलिए नहीं ली कि क्या पता एकाध कोई पत्रकार समझ कौनो स्टिंग फ़्टिंग के चक्कर में कैमरा समेत हमारा शिकार करे ।

हां जैसा कि मैं ऊपर आपको बता रहा था कि इस नई सरकार के बही खाते में एक कमाल का तमगा ये लग रहा है कि इसने सबको नशेडी और शराबी बनाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोडी है और इसी क्रम में मुझे पता चला कि सरकार ने खुद एक घोषणा भी छोडी है हर बेवडा चौक पे कि नशा मुक्त गांव को भारी ईनाम से नवाज़ा जाएगा , जे बात :) इसे कहते हैं कांटे की कंपटीसन ..............चलिए आगे फ़िर बताएंगे , सुनाएंगे और हां दिखाएंगे भी .............







सोमवार, 13 जनवरी 2014

दिल्ली टू मधुबनी ,वाया सरयू यमुना (ग्राम यात्रा-II)




बेहद दुख और कमाल की बात ये है कि इतने सारे सुधारों के दावों के बाद भी भारतीय रेल और रेल यात्राओं का हाल कमोबेश अब भी यही है । जिन दिनों मैं दिल्ली से मधुबनी के लिए सरयू यमुना एक्सप्रैस के स्लीपर में यात्रा कर रहा था लगभग उन्हीं दिनों खबरों में ये सुन देख रहा था कि रेल के डिब्बे धधक रहे हैं और उनमें सफ़र कर रहे यात्री अपनी आखिरी यात्रा पर निकल गए हैं । जांच कमेटियां , मुआवजा , भविष्य के लिए योजनाएं आदि की नौटंकी तो इसके बाद आती जाती ही रहीं पहले भी आती जाती रही हैं । मगर मैंने और मुझ जैसे बिहार उत्तर प्रदेश जाने वाले हर रेल यात्री ने इन यात्राओं में जिस तरह के अनुभव लिए हैं , वो नि:संदेह साठ सालों के बाद और पिछले सालों में रेल मंत्रालय व प्रशासन द्वारा किए गए वादों के बाद बहुत ही तकलीफ़देह है । हालांकि इसमें भी कोई संदेह नहीं कि रेल सफ़र को कुव्यवस्थित और निहायत ही कठिन बनाने में खुद हम रेल यात्रियों का भी कम योगदान नहीं है ।


जब दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफ़ार्म संख्या 13 से मैं अपनी रेल , सरयू यमुना एक्सप्रेस में बैठने के लिए खडा था तो मुझे यकायक दीवाली से पहले का वो दिन याद आ गया जब इसी तरह गांव जाने के इसी रेल को अपनी भरसक कोशिश के बावजूद सिर्फ़ इस वजह से नहीं पकड पाया था क्योंकि भीडभाड की अधिकता के कारण और सभी दरवाज़ों को पीछे अमृतसर और पंजाब के बाद के स्टेशनों पर चढे और दीवाली और छठ के लिए घर जा रहे मजदूर परिवारों ने खोला ही नहीं । इस बार कमोबेश उतनी खराब नौबत नहीं थी । लेकिन उससे पहले जो एक दुविधा मेरे मन में उठी , जो पहले भी ऐसी रेल यात्राओं के दौरान उठती रही है । प्लेटफ़ार्म पर खडे होने और रेल की प्रतीक्षा करते समय ये पता नहीं होता कि अमुक स्थान पर अमुक डब्बा आकर लगेगा । मेरे ख्याल से रेल के आने के बाद जो  अफ़रा तफ़री मचती है उसका एक बडा अहम कारण यही है ।

 मैं अब तक समझ नहीं पाया हूं कि आखिर क्यों हम अब तक ये निश्चित नहीं कर पाए हैं कि प्लेटफ़ार्म पर एक निश्चित स्थान पर भी कोई निश्चित डब्बा आकर खडा होगा । अब  तो पहले की तरह आरक्षित सीटों के चार्ट के ऊपर भी ये अंकित नहीं होता कि अमुक डब्बे संख्या को अमुक डब्बे के रूप में लगाया गया है । अब ये पता नहीं कि ऐसा सिर्फ़ बिहार और उत्तरप्रदेश जाने वाली रेलों और उनमें चढने वाले यात्रियों को फ़ालतू समझ कर किया जाता है या सभी रेलों का यही हाल है । किंतु मुझे लगता है कि यदि सभी प्लेटफ़ार्मों पर ये निश्चित कर दिया जाए कि एक निश्चित स्थान पर ही आकर एक निश्चित डिब्बा लगे तो स्थिति में बहुत बडा सुधार हो सकता है ।

डब्बे के भीतर का नज़ारा अपेक्षा के अनुरूप ही निकला । आरक्षित यात्रियों का कम से कम दोगुना वे यात्री ठुंसे हुए थे जो वेटिंग टिकट लेकर अपने भारी सामानों , पेटी ,बक्से , गठरी , बोरी , और जाने क्या , बर्थ के नीचे से लेकर ऊपर तक । खैर बिहार और उत्तर प्रदेश के रेल यात्री इस माहौल से खूब परिचित होते हैं । पूछने पर पता चला कि अधिकांश पंजाब से लौट रहे कृषि मजदूर हैं । लगभग अट्ठाईस घंटे के लंबे सफ़र के बावजूद रेल में पैंट्री कार की व्यवस्था का न होना तो नहीं खला , कम से कम मुझे क्योंकि मैं पहले ही देख चुका था और रास्ते के लिए पर्याप्त मात्रा में खाने पीने की वस्तुएं ले चुका था ,मगर डब्बों के शौचालयों में थोडी देर पानी का न होना क्षुब्ध कर गया ।

सफ़र में किताबें और कैमरा दोनों साथ निभाते गए । इस बार सफ़र में काफ़ी कुछ मिला जो मुझे कैमरे में कैद करने लायक लगा , धीरेधीरे आपको दिखाउंगा ......... और मैं तकरीबन रात के ढाई बजे मधुबनी स्टेशन पर उतर चुका था ................

रेल सफ़र में रेल और पटरियों से जुडी कुछ तस्वीरें , आप भी देखिए ........
फ़ैज़ाबाद स्टेशन पर इंतज़ार करती सवारियां

एक ने तो रेल भी पकड ली

ऊपर पूर्वज यात्रा कर रहे हैं और नीचे मानुस

फ़ैज़ाबाद जंक्शन

बलिया छपरा के आसपास खेतों में नीलगाय

नीलगायों का झुंड


क्रमश:

रविवार, 12 जनवरी 2014

यादों का एलबम (ग्राम यात्रा- I)...झा जी कहिन

लहकते खेतों की सुनहरी चमक

लगभग एक साल के बाद मां की पांचवी बरसी के लिए गांव जाने का कार्यक्रम बन गया , वैसे तो मुझ बदनसीब को , बदनसीब इसलिए क्योंकि जितना ज्यादा प्यार और लगाव मुझे ग्राम्य जीवन से था और यही कारण था कि मैं किसी भी बहाने से साल में कम से कम दो बार तो जरूर ही गांव पहुंच जाता था, मगर अब मां बाबूजी के चले जाने के बाद ये तारतम्यता टूट सी गई है , जब भी कोई अवसर मिलता है मेरी भरसक कोशिश होती है कि मैं गांव पहुंच जाऊं मगर ये भी सच है कि अक्सर ऐसा नहीं हो पाता है ।

इस बार की बहुत ही छोटी सी ग्राम यात्रा बहुत सारे मायनों में अलग रही । बहुत कुछ नया , अ्नोखा और रोमांचित करने वाला लगा/मिला । सडकों की दुरूस्त हुई हालत ने न सिर्फ़ सडकों की रफ़्तार बढा दी है , न सिर्फ़ ऑटो टैंपो , रिक्शे , जीप की आवक जावक को बढा कर ट्रेन के आगे के गांव कस्बों तक पहुंच को सुलभ बनाया है बल्कि रातों को हर चौक चौराहे पर जलते बल्ब और सीएफ़एल भी मानो ये बता रहे हैं कि बहुत कुछ बदल रहा है और बहुत तेज़ी से बदल रहा है ।


खेतों में गन्नों , तंबाकू ,और सब्जियों की लहलहाती फ़सल मानो ईशारा कर रही थी कि हम भी अब बदलने को आतुर हैं । जिलों और कस्बों के बाज़ार अब फ़ैलने लगे हैं और उनमें भीड भी अचानक ज्यादा दिखाई देती है । किताबों की दुकानों से लेकर समाचार पत्रों की संख्या में भी बहुत इज़ाफ़ा होता दिखाई दिया है । बीच में अचानक जो शून्यता सी दिखने लगी थी वो अब भरने सी लगी है ।

लेकिन सब अच्छा ही अच्छा हो रहा है ऐसा भी नहीं है , सरकार की अजीबोगरीब नीतियां जिसके कारण आज गांवों के चौक चौराहों पर शराब के अड्डे खुल गए हैं , बडी से छोटी और कच्ची उम्र तक के लोग नशे के आदी बन रहे हैं अब शराब और थैली (कच्ची शराब) ज्यादा आसानी से उपलब्ध कराई जा रही है । तिस पर कमाल ये कि सरकार खुद ऐलान कर रही है कि नशा मुक्त ग्राम को एक लाख रुपए का पुरस्कार दिया जाएगा । अपराध की बढती घटनाओं ने भी बरबस ध्यान खींचा , सिर्फ़ पांच दिनों के अपने प्रवास में मैंने कम से कम दस बडे अपराधों के बारे में पढा सुना । डकैती , अपहरण और बलात्कार की घटनाओं के अलावा भ्रष्टाचार और उनमें फ़ंसते और धराते अधिकारियों की खबरें भी पढने सुनने देखने को मिलीं । अस्पताल और स्कूल के हालात अब पहले के मुकाबले बहुत बेहतर है । इन सब पहलुओं पर विस्तार से लिखूंगा , और बिंदुवार लिखूंगा ...फ़िलहाल कुछ बेहद खूबसूरत से दृश्य जो मैंने अपने कैमरे में कैद किए , आपके लिए ले आया हूं







खेतों के आसपार विचरते हुए नीलगायों का समूह

नीलगायों ने बेशक कृषकों की मुसीबतें बढाई हैं मगर मेरे लिए तो आकर्षण जैसा था


आंगन में चमकता हुआ सूरज का कतरा बना हुआ गेंदे का फ़ूल
सरस्वती पूजा की तैयारियों में लगा बाज़ार ..खूबसूरत प्रतिमाएं

हरी पीली चादर ओढे हुए धरती


हरी हरी धरती पे पीले पीले फ़ूल

बढती और उगती फ़सल

रेल का लंबा सफ़र

गन्नों की पेराई और बनती गुड की भेलियां

बदलते हुए स्कूल


आगे की पोस्टों में , मैं आपको सिलसिलेवार इस विकास और विस्तार की कहानी सुनाऊंगा ..........

गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

कुछ यूं ही कर दिखाओ तो जानें




वाह भईये , भई बहुत अच्छे जा रहे हो । यूं ही सधे सधे कदमों से आगे बढते चलो , बेशक इस लडाई का अभी कोई तुरंत और त्वरित सुखद परिणाम निकल कर सामने नहीं आए , इसके बावजूद, हां इसके बावजूद भी ये जो समीकरण बदलने की शुरूआत तुमने की है उसका प्रभाव देखने के लिए सिर्फ़ इतना ही देखना काफ़ी होगा कि बिना खानदान , पुश्तों की राजनीतिक बपौती , बिना किसी बडे बडे आपराधिक दबंगई के रिकार्ड के तुमने न सिर्फ़ बरसों से चली आ रही सोच और निष्क्रियता को थोडा सा तो झटक दिया है । सालों से सोई सोच को तंद्रा से उठाने के लिए इतना झटका पर्याप्त तो है ही ।


आखिरकार वही हुआ जिसका डर था , डर सियासत और सियासतदानों को था , वे अक्सर ही नायक फ़िल्म के अमरीश पुरी बनकर बात बेबात चिल्ला कर कहते थे , अबे यूं न समझो हमें जनता ने चुन कर भेजा है , हम जनता की आवाज़ हैं , जो कहते हैं जो करते हैं समझो जनता कहती है जनता करती है , बिल्कुल राजा बाबू वाली फ़ील सी आने लगती थी , फ़िर जब जरा सा आइना दिखाया तो बिलबिला कर बोल बैठे , चलो आओ जाओ फ़िर मैदान में । लगता तो ये है कि अब ये राजनीतिक पार्टियां यही सोच रही होंगी कि जब आज तक देश की जनसंख्या बढते हुए जाने कितनी गुना हो गई है और ऐसे में भी देश चलाने के लिए सिर्फ़ उतने ही चुने हुए नगीनों के कंधों पर यकीन किया जाना चाहिए , ज्यादा कंधें ज्यादा जिम्मेदारी उठा सकते हैं , लेकिन यहां कंधों की नहीं सिर्फ़ जेबों की जरूरत ही मुख्य रही थी , ऐसे में भी प्रतिनिधियों ने कंधों का दायरा ज्यादा नहीं बढने दिया । शायद फ़िर दूसरी ये वजह रही हो कि , सत्र के दौरान वैसे ही क्या कम हाट बाज़ार मंडी वाली भावना दिखाई देती है जो और जनप्रतिनिधियों की गुंजाईश बनाएं ।


वाह भईये , कहां तो जंतर मंतर से मुट्ठी भर सेना के सहारे सीधा सियासत को ललकार दिया , ईश्वर ही जानता है कि उस समय जंतर मंतर पर मौजूद एक एक व्यक्ति ,देश और व्यवस्था को बदलने के जिस ज़ज़्बे को जी रहा था वो यदि पश्चिमी या अरब देशों की तरह हिंसक हो उठता तो जनलोकपाल से पहले सी सरकार का जनाजा उठा  के मानता । सिद्धांत और विचारों के कारण एक हुए लोग , फ़िर किसी वैचारिक भिन्नता के कारण अलग अलग रास्तों पर चलने को उद्दत हुए । एक ने चुना उस चुनौती को सीधे सियासत के नुमाइंदों ने की थी , दूसरे ने चुना वही जन आंदोलन और सामाजिक जागरूकता का रास्ता । लेकिन दोनों की इस फ़ूट को इस लडाई की विफ़लता करार देने वाले ये भूल कर बैठे कि इस तरह तो उनके खिलाफ़ दो मोर्चों पर लडने वाले उठ खडे हुए हैं , जिनकी लडाई बेशक अलग हो मगर मकसद तो वही है । और फ़िर क्या ये अवश्यंभावी नहीं है कि नीयत मिलने वाले लोगों के पुन: मिल बैठने की गुंज़ाईश ज्यादा प्रबल है । वैसे सोच कर देखिए कि , यदि जनलोकपाल की लडाई को शुरू करने वाली वो सिविल सोसायटी कोई एक रास्ता ही चुन कर उस पर अपनी चोट प्रबलता से करती तो क्या सियासत और सरकार इतने दिनों तक भी चैन से रह सकते थे ।


अब एक नया हल्ला मच और मचाया जा रहा है , वादे कर तो दिए मगर पूरे नहीं कर पाएंगे इसी वजह से तो ये नए नए शहसवार मैदाने सियासत में कूदने से डर रहे हैं , ललकारने पर कोई खुद सी एम बनकर समस्याओं को हल करे ऐसा तो सिर्फ़ नायक सिनेमा में हो सकता है ,असल में ऐसा कोई नायक समाज में आज मौजूद नहीं है । गौर से देखिए , आज सरकार , समाज और थोपी गई नीतियों के खिलाफ़ उठ कर खडे होने और लडने वालों की तादाद बढती ही जा रही है , समय आ रहा है जब हर उस एक व्यक्ति को निशाने पर लिया जाएगा और लिया जाना चाहिए जिसकी आमदनी से कहीं बडी और ऊंची उसकी औकात हो जाए । क्या नहीं हो सकता , बिजली , पानी , सडकें , शौचालय , स्कूल , अस्पताल ...एक एक चीज़ हो सकती है , करोडों अरबों कमाने वालों की पूरी फ़ौज़ खडी है , सभी दो नंबरियों की सारा माल पत्तर जब्त करके झोंक दो सबके लिए । इतने स्कूल इतने अस्पताल इतने अदालत बना दो कि गरीब को पढने के लिए , ईलाज़ और न्याय के लिए बरसों तक सरकार समाज का मुंह नहीं ताकना पडे ।


सबसे अहम बात , ये सब तभी संभव है जब लोकसेवक बन कर काम करना , नेता मंतरी बन कर नहीं । ध्यान रहे कि ये जनसेवा की कुर्सी सिर्फ़ पांच बरसों के लिए मिली है वो भी एडहॉक बेसिस पे , इसलिए बिंदास और बेखौफ़ करो अपना काम , ये ध्यान में रखते हुए कि जनता खुद अब सी आर लिख रही है सबका । वैसे तो ताज़ा घटनाक्रम और पल पल बदलते तेवर यही बता रहे हैं कि आम आदमी को सिंहासन पर बैठा हुआ देखने का ताव ये सभी राजनीतिज्ञ ज्यादा दिनों तक नहीं सह सकेंगे , लेकिन जब तक चले ये रस्साकशी , तुम थामे रहना , झुकना मत , टूटना मत ................

रविवार, 10 नवंबर 2013

बी.टेक और एम.बी.ए पर भारी बी.एड ..अथ मगन लाल उवाच


ये मगनलाल जी नहीं हैं , गूगल खोज इंजन से लिया गया चित्र




मगनलाल जी के किस्से आप पहले यहां पढ चुके हैं , जिसमें मगन लाल जी ये कहते पाए गए थे कि , देश में भ्रष्टाचार और बेइमानी की असली वजह है देश के राजे ही बेइमान और भ्रष्ट हैं । अगले दिन जब मैं मगन लाल जी रेहडी के पास पहुंचे तो वे अपने साथ रोज़ खडे होने वाले आइसक्रीम वाले राजू से बातचीत में मगन मिले ।

मैं चुपचाप खडा उनकी बातें सुनने लगा ।

राजू ने शायद उनसे उनके परिवार और बाल बच्चों का हाल चाल संभवत: उनकी पढाई लिखाई के बारे में पूछा था , जिस पर तल्ख होकर मगन लाल जी कह रहे थे ।

"अरे क्या बताऊं दोनों ही बेटों को नए कोर्सों में डाला , एक बी टेक करके है और दूसरा वो मैनेजमेंट वाला होता है न "

मैंने कहा "बी.बी.ए या एम .बी.ए ..........."

"हां वही वही एम बी ए में , गांव की सारी जमीन बेच बेच के उनकी फ़ीस जमा करी है । बडे वाले का कोर्स तो पूरा भी हो गया मगर अब तक ढंग की नौकरी नहीं लगी , पता नहीं करना भी चाहता है नहीं , ये आजकल के बच्चों को चाहिए भी तो सीधा ही अफ़सर वाली नौकरी , मुलाज़िम तो कोई बनना ही नहीं चाहता । ये समझते ही नहीं हैं सीढियां नीचे से ऊपर चढने के लिए बनाई जाती हैं , कोई ऊपर से नीचे आने के लिए सीढियां नहीं बनाता , कहो तो मुंह फ़ुला लेते हैं , बार बार मंदी मंदी कटौती कटौती की बात कह देते हैं , खाली बैठा रहता है नहीं तो घूमता फ़िरता रहता है । "


इस बीच राजू टोकते हुए कहता है ," तुम्हें रुकना चाहिए था न मगन जी , पहले एक को कोर्स कराते फ़िर उसकी नौकरी लग जाने देते फ़िर दूसरे को कोई दूसरा कराते , सब देख दाख कर "


"अरे कैसी बात करते हो राजू यार , देख क्या लेते , हमें कौन सी समझ है इन बडी पढाइयों की और फ़िर क्या उम्र रुकी रहती है किसी , एक की पढाई खतम होने और उसके सैट होने तक क्या दूसरे को रोक कर रखता , उसने कहा मेरे दोस्तों ने मैनेजमेंट की पढाई में नाम लिखाया है , मैं भी वही कर लेता हूं । कहता तो है कि पास होते ही नौकरी तो लग ही जाएगी , मगर जी घबराता है । "


"वो तो खुदा का शुक्र है कि संगीता ने बी.एड कर ली और टाईम से उसकी नौकरी भी लग गई । पहले दो साल तो वो प्राइवेट में ही पढा रही थी और कुछ न कुछ घर ले ही आती थी , जबसे उसकी सरकारी नौकरी लग गई है तबसे थोडी सांस में सांस है भाई । वर्ना इन रेहडी , खोमचे से घर कितनी देर चलेगा । साल छ : महीने में उसके हाथ पीले कर दूंगा अपने घर चली जाएगी फ़िर मुझे चिंता नहीं । ये ससुरे करते रहें जो करना है , मैं तो साफ़ कह दूंगा कि नौकरी मिलती है तो करो , नहीं तो लगाओ , केले , सेब , अमरूद या अंडे की रेहडी " ।


मगनलाल जी केलों को मेरे थैले में डालते हैं और मैं उन्हें उठा कर मुड जाता हूं ....................

शनिवार, 2 नवंबर 2013

राजा बेइमान है , अथ मगन लाल जी उवाच


ये मगन लाल जी नहीं हैं , चित्र गूगल के खोज परिणाम से और मूल फ़ोटोग्राफ़र से आभार सहित


हमारे मुहल्ले के करीब वाली सडक पर ही मगनलाल जी अक्सर खडे होते हैं , अपनी केले की रेहडी के साथ । वे हमेशा केले नहीं बेचते हैं , मौसम के अनुसार फ़ल रखते हैं बेचने के लिए । कभी चीकू , कभी सिंहाडे , अमरूद लेकिन ज्यादा साथ केला ही देता है । बकौल मगन लाल जी , गरीब अमीर सबका फ़ल है बाबूजी , दो से लेकर दर्ज़न तक ,बडी ही सहूलियत से खरीदा जाता है और कुदरत ने इस तरह से बनाया है इसको कि बेचने में भी उतनी ही सहूलियत । 


लेकिन मगन लाल जी सिर्फ़ केलों पर ही नहीं कहते । मैं शाम की कसरत के बाद अक्सर जा पहुंचता हूं उनकी रेहडी के पास , मेरे साथ ही दोनों बच्चों को भी बेहद पसंद है केला । और इसी कारण एक जान पहचान सी हो गई है उनसे और उनसे ज्यादा उनकी बातों से ।


" उस सामने खडे कांस्टेबल को देख रहे हैं बाबूजी , राजस्थान का है रहने वाला , ये और इसका एक और साथी दशहरे के बंदोबस्त के पहले से लगे हुए हैं यहां , और उस दिन से आज तक शायद ही कोई दिन बीता हो जब इसने आसपास खडी सभी रेहडियों से , किसी से अंडा , आमलेट , किसी से भल्ले पापडी , किसी से सेब तो किसी से और कुछ , रोज़ाना दो तीन सा सामान न खाया हो और मजाल है जो आज तक किसी से ये भी पूछा हो कि कितना हुआ " " इतना ही नहीं आसपास से गुजरने वाले अपने साथियों को भी बुला लेता है , खिलाने पिलाने के लिए , इनका तो इतना बुरा होना चाहिए न साहब कि क्या कहूं "

" क्यों सिर्फ़ गोरमेंट को ही गालियां पडें , जब हम सब आपस में ही एक दूसरे को लूट रहे हैं साहब , इस पुलिस वाले को क्या ये नहीं पता कि हम गरीब लोग कैसे जी रहे हैं , वो भी इस शहर में "

मैं अवाक सुन रहा था , " हां मगन लाल जी ये एक हकीकत है आज अपने समाज की , लेकिन अब बदल तो रहा ही है धीरे धीरे सबकुछ "

"अरे कुछ नहीं बदल रहा है साब । पचास रुपए की जेब काटने वाले को भी वही जेल की सज़ा और अरबों खरबों रुपए दबा लेने वाले को भी , आज तक किसी घपले घोटाले वाले के पैसे पकडे हैं सरकार ने कोर्ट ने , वो हम गरीबों का ही तो पैसा है साब , और जब राजा ही बेइमान है तो प्रजा से क्या उम्मीद की जा सकती है । एक पते की बात बताऊं साब अगर बडे लोग बेइमान न हों तो मजाल है छोटों की इतना कर सकें । ये कौन सा न्याय हुआ साब कि अरबों खरबों लूट के अपनी सात पुश्तों के लिए रख जाओ और पकडे जाने पर जेल की सज़ा ले लो , वो भी आधा अस्पताल में और आधा कोर्ट में " " इनका तो सारा रुपया पैसा लेकर सरकारी खजाने में रख देना चाहिए , ताकि उसे देश के काम में लगाया जाए " ।


 रेहडी के साथ खडे मगन लाल जी कहते जाते हैं , धारा प्रवाह ..और मेरे कानों में सायं सायं होने लगती है .."हां अगर बडों को ये एहसास हो जाए तो ही स्थिति बदल सकती है .............................सोचते हुए
मैं हाथ में पकडे हुए केलों को स्कूटर की डिक्की में रखता हूं , और किक मार देता हूं ।



अगले दिन मगनलाल जी ने मुझे समझाया कि किस तरह से एमबीए और बीटेक पर भारी पड गई बी.एड ....आप चक्कर लगाते रहिएगा

रविवार, 8 सितंबर 2013

दंड पेलती हिंदी ............


देखिए गौर से लिखा है झ से झा :) :)


सितंबर का महीना बीमार और कमज़ोर होती हिंदी के लिए दंड पेलने का समय होता । एक तारीख से 14 सितंबर तक और कभी कभार तो पूरे महीने "हिंदी-हिंदी "खेलने के कई तरह के टूर्नामेंट और ट्वेंटी-ट्वेंटी (हिंदी बोले तो खेल प्रतियोगिता और बीस-बीसा ) आयोजित किए जाते हैं । इस खास मानसूनी मौसम में ,डेंगू मलेरिया  से ग्रस्त जनता के साथ ये समय "हिंदी" को ग्लूकोज़ की बोतलें चढाने का भी होता है । सरकार व प्रशासन तो हिंदी के साथ ठीक वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसा कि वो आम लोगों के साथ करते हैं । आम आदमी की याद पांच बरस में एक बार आती है और हिंदी की याद बरस में एक दिन । 


हिंदी को कामकाज की भाषा बनाने की घनघोर प्रतिज्ञा सरकार ने ले तो ली मगर जब कामकाज के नाम पर सिर्फ़ घपले घोटाले ही करने होते हैं तो फ़िर क्या फ़र्क पडता है वो हिंदी में करो या किसी अन्य भाषा में । हां इस  समय सरकार चाहे तो ये कह कह अपनी पीठ थपथपा सकती है कि कोयले आवंटन घोटाले से संबंधित सारी गुम हुई फ़ाइलें हिंदी में ही लिखी पढी गई थीं , अब कोई इसे गलत साबित करके दिखाए तो मानें । 

जहां तक हिंदी के साथ हुए इस तथाकथित अन्याय की बात है तो खुद अदालत के हाकिम ही कहते हैं कि कानून की दुनिया में हिंदी का क्या काम ? ठीक भी है , कानून हिंदी में होगा तो आम आदमी भी आसानी से समझ जाएगा ,जब आम आदमी कानून समझ ही जाएगा तो फ़िर तोडने से भी बच बचा जाएगा और अगर कानून नहीं टूटेगा , तोडा जाएगा तो अदालतें चलेंगी कैसे और हाकिम करेंगे क्या ??


हिंदी पर अगर कोई मेहरबान है तो वो है मोबाइल कंपनियां मगर हाय रे हिंदी की किस्मत वहां की हिंदी तो हिंदी की पूरी चिंदी कर डालने पर आमादा हैं ,जैसे ही मोबाइल खोलो ,"हाय , व्हाट्स अप्प्, और हिंदी गोल गप्प "

हालांकि हिंदी की लगातार पतली होती हालत पर ज्यादा दुबला होने की जरूरत कतई नहीं है क्योंकि हिंदी खुद दंड पेल कर कडी टक्कर दे रही है । सबूत चाहते हैं तो आप चेन्नई एक्सप्रेस को ही लीजीए न । अकेली हिंदी जब तक थी सौ करोड तक बिन्नेस का मामला पहुंचता था  , मगर जैसे ही हिंदी ने तमिल के साथ दो दो हाथ , कुश्ती दंगल और प्यार किया मामला दो सौ करोड के पार और उससे भी पारमपार पहुंचता दिख रहा है । सबसे अच्छी बात तो ये हुई है कि तमिल चार छ; फ़ीट लंबी तगडी होते हुए भी सिनेमा के अंत में हिंदी उसे पटक पटक कर जीत जाती है और फ़िर खुशी खुशी दोस्ती कर लेती है । 


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