बेहद दुख और कमाल की बात ये है कि इतने सारे सुधारों के दावों के बाद भी भारतीय रेल और रेल यात्राओं का हाल कमोबेश अब भी यही है । जिन दिनों मैं दिल्ली से मधुबनी के लिए सरयू यमुना एक्सप्रैस के स्लीपर में यात्रा कर रहा था लगभग उन्हीं दिनों खबरों में ये सुन देख रहा था कि रेल के डिब्बे धधक रहे हैं और उनमें सफ़र कर रहे यात्री अपनी आखिरी यात्रा पर निकल गए हैं । जांच कमेटियां , मुआवजा , भविष्य के लिए योजनाएं आदि की नौटंकी तो इसके बाद आती जाती ही रहीं पहले भी आती जाती रही हैं । मगर मैंने और मुझ जैसे बिहार उत्तर प्रदेश जाने वाले हर रेल यात्री ने इन यात्राओं में जिस तरह के अनुभव लिए हैं , वो नि:संदेह साठ सालों के बाद और पिछले सालों में रेल मंत्रालय व प्रशासन द्वारा किए गए वादों के बाद बहुत ही तकलीफ़देह है । हालांकि इसमें भी कोई संदेह नहीं कि रेल सफ़र को कुव्यवस्थित और निहायत ही कठिन बनाने में खुद हम रेल यात्रियों का भी कम योगदान नहीं है ।
जब दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफ़ार्म संख्या 13 से मैं अपनी रेल , सरयू यमुना एक्सप्रेस में बैठने के लिए खडा था तो मुझे यकायक दीवाली से पहले का वो दिन याद आ गया जब इसी तरह गांव जाने के इसी रेल को अपनी भरसक कोशिश के बावजूद सिर्फ़ इस वजह से नहीं पकड पाया था क्योंकि भीडभाड की अधिकता के कारण और सभी दरवाज़ों को पीछे अमृतसर और पंजाब के बाद के स्टेशनों पर चढे और दीवाली और छठ के लिए घर जा रहे मजदूर परिवारों ने खोला ही नहीं । इस बार कमोबेश उतनी खराब नौबत नहीं थी । लेकिन उससे पहले जो एक दुविधा मेरे मन में उठी , जो पहले भी ऐसी रेल यात्राओं के दौरान उठती रही है । प्लेटफ़ार्म पर खडे होने और रेल की प्रतीक्षा करते समय ये पता नहीं होता कि अमुक स्थान पर अमुक डब्बा आकर लगेगा । मेरे ख्याल से रेल के आने के बाद जो अफ़रा तफ़री मचती है उसका एक बडा अहम कारण यही है ।
मैं अब तक समझ नहीं पाया हूं कि आखिर क्यों हम अब तक ये निश्चित नहीं कर पाए हैं कि प्लेटफ़ार्म पर एक निश्चित स्थान पर भी कोई निश्चित डब्बा आकर खडा होगा । अब तो पहले की तरह आरक्षित सीटों के चार्ट के ऊपर भी ये अंकित नहीं होता कि अमुक डब्बे संख्या को अमुक डब्बे के रूप में लगाया गया है । अब ये पता नहीं कि ऐसा सिर्फ़ बिहार और उत्तरप्रदेश जाने वाली रेलों और उनमें चढने वाले यात्रियों को फ़ालतू समझ कर किया जाता है या सभी रेलों का यही हाल है । किंतु मुझे लगता है कि यदि सभी प्लेटफ़ार्मों पर ये निश्चित कर दिया जाए कि एक निश्चित स्थान पर ही आकर एक निश्चित डिब्बा लगे तो स्थिति में बहुत बडा सुधार हो सकता है । जब दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफ़ार्म संख्या 13 से मैं अपनी रेल , सरयू यमुना एक्सप्रेस में बैठने के लिए खडा था तो मुझे यकायक दीवाली से पहले का वो दिन याद आ गया जब इसी तरह गांव जाने के इसी रेल को अपनी भरसक कोशिश के बावजूद सिर्फ़ इस वजह से नहीं पकड पाया था क्योंकि भीडभाड की अधिकता के कारण और सभी दरवाज़ों को पीछे अमृतसर और पंजाब के बाद के स्टेशनों पर चढे और दीवाली और छठ के लिए घर जा रहे मजदूर परिवारों ने खोला ही नहीं । इस बार कमोबेश उतनी खराब नौबत नहीं थी । लेकिन उससे पहले जो एक दुविधा मेरे मन में उठी , जो पहले भी ऐसी रेल यात्राओं के दौरान उठती रही है । प्लेटफ़ार्म पर खडे होने और रेल की प्रतीक्षा करते समय ये पता नहीं होता कि अमुक स्थान पर अमुक डब्बा आकर लगेगा । मेरे ख्याल से रेल के आने के बाद जो अफ़रा तफ़री मचती है उसका एक बडा अहम कारण यही है ।
डब्बे के भीतर का नज़ारा अपेक्षा के अनुरूप ही निकला । आरक्षित यात्रियों का कम से कम दोगुना वे यात्री ठुंसे हुए थे जो वेटिंग टिकट लेकर अपने भारी सामानों , पेटी ,बक्से , गठरी , बोरी , और जाने क्या , बर्थ के नीचे से लेकर ऊपर तक । खैर बिहार और उत्तर प्रदेश के रेल यात्री इस माहौल से खूब परिचित होते हैं । पूछने पर पता चला कि अधिकांश पंजाब से लौट रहे कृषि मजदूर हैं । लगभग अट्ठाईस घंटे के लंबे सफ़र के बावजूद रेल में पैंट्री कार की व्यवस्था का न होना तो नहीं खला , कम से कम मुझे क्योंकि मैं पहले ही देख चुका था और रास्ते के लिए पर्याप्त मात्रा में खाने पीने की वस्तुएं ले चुका था ,मगर डब्बों के शौचालयों में थोडी देर पानी का न होना क्षुब्ध कर गया ।
सफ़र में किताबें और कैमरा दोनों साथ निभाते गए । इस बार सफ़र में काफ़ी कुछ मिला जो मुझे कैमरे में कैद करने लायक लगा , धीरेधीरे आपको दिखाउंगा ......... और मैं तकरीबन रात के ढाई बजे मधुबनी स्टेशन पर उतर चुका था ................
रेल सफ़र में रेल और पटरियों से जुडी कुछ तस्वीरें , आप भी देखिए ........
फ़ैज़ाबाद स्टेशन पर इंतज़ार करती सवारियां |
एक ने तो रेल भी पकड ली |
ऊपर पूर्वज यात्रा कर रहे हैं और नीचे मानुस |
फ़ैज़ाबाद जंक्शन |
बलिया छपरा के आसपास खेतों में नीलगाय |
नीलगायों का झुंड |
क्रमश:
" मैं अब तक समझ नहीं पाया हूं कि आखिर क्यों हम अब तक ये निश्चित नहीं कर पाए हैं कि प्लेटफ़ार्म पर एक निश्चित स्थान पर भी कोई निश्चित डब्बा आकर खडा होगा । अब तो पहले की तरह आरक्षित सीटों के चार्ट के ऊपर भी ये अंकित नहीं होता कि अमुक डब्बे संख्या को अमुक डब्बे के रूप में लगाया गया है । अब ये पता नहीं कि ऐसा सिर्फ़ बिहार और उत्तरप्रदेश जाने वाली रेलों और उनमें चढने वाले यात्रियों को फ़ालतू समझ कर किया जाता है या सभी रेलों का यही हाल है । किंतु मुझे लगता है कि यदि सभी प्लेटफ़ार्मों पर ये निश्चित कर दिया जाए कि एक निश्चित स्थान पर ही आकर एक निश्चित डिब्बा लगे तो स्थिति में बहुत बडा सुधार हो सकता है । "
जवाब देंहटाएंबड़े स्टेशन पर यह सुविधा है ... जैसे कलकत्ता मे मैंने देखा है ... बाकी शायद दिल्ली मे भी है ... लेकिन इस मामले मे अधिक और सटीक जानकारी शायद कोई रेलवे वाले मित्र ही दे पाएँ | चित्र सब बेहद उम्दा है ... खास तौर पर फैजाबाद स्टेशन वाले सारे |
हां शिवम भाई मैंने भी देखा है कि ऐसी व्यवस्था है बहुत स्थानों पर मगर इसे हर हाल में एक निश्चित नियम बना देना चाहिए । रेलवे प्लेटफ़ार्मों पर भगदड मचने का ये बहुत बडा कारण है
जवाब देंहटाएंहां शिवम भाई मैंने भी देखा है कि ऐसी व्यवस्था है बहुत स्थानों पर मगर इसे हर हाल में एक निश्चित नियम बना देना चाहिए । रेलवे प्लेटफ़ार्मों पर भगदड मचने का ये बहुत बडा कारण है
जवाब देंहटाएंकमोबेश बहुत जगह यही हालात देखने को मिलते हैं ...
जवाब देंहटाएंहां कविता जी यही तो रोना है
हटाएंछठ के समय भारतीय रेलों का हाल कैसे ठीक रखा जाये , यह तो बड़ा मुश्किल सवाल है . हमने तो राजधानी को देखा है , डिब्बे सही जगह पर लगते हैं .
जवाब देंहटाएंहां सर राजधानी और शताब्दी सरीखी बडी रेलों पर ही सारा ध्यान दिया जाता है अन्य सबकी उपेक्षा ही की जाती है
हटाएंबलिआ तो हमारा इलाका है :)
जवाब देंहटाएं*बलिया :)
हटाएंरेल तो हमारा घर ही है, दिन रात वही बात होती है, आपकी यात्रा शुभ रहे सदा।
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