पिछली बार जब गांव गया था तो मधुबनी से गांव के इस सडक जिसके बारे में मुझे बिल्कुल ठीक ठीक और शायद पहली बार ये मालूम चला कि ये बिहार का राजकीय मार्ग संख्या 52 है , माने कि राज्यों के लिए राष्ट्रीय राजमार्ग सरीखी महत्वपूर्ण , हालांकि मुझे इतना अंदाज़ा तो था कि देश की सीमा की सडकों से जुडी होने के कारण ये बहुत मुख्य महत्व वाली सडक है किंतु अपने गांव में रहने तक और खासकर इस पर पडने वाले कमाल के लकडी सीमेंट और लोहे के पुलों और साल दो साल के अंतराल पर उनका चरमराया हुआ ढांचा देखकर ऐसा कभी भीतर से महसूस नहीं हो पाया कि इतने महत्व का होगा , तो पिछली बार ये देख कर मुझे खुशी हुई थी कि इस बार सडक पर सरकार इस तरह से गंभीर होकर काम करवा रही है कि अब ये कम से कम दस सालों तक के लिए पक्का काम किया जा रहा है । एक मिशन की तरह से शुरू और पूरा किया गया ये काम नि: संदेह राज्य द्वारा करवाए गए कुछ बहुत अहम कामों में से एक अवश्य है । तो इस बार नए कमाल के मजबूत पुलों के साथ नई और एकदम सपाट बेहतरीन सडक हमें इत्ती भाई कि हमने चार दिन के डेर में दो दिन सायकल हांक दिया गांव से मधुबनी की ओर ।
यहां सायकल की कहानी सुनानी तो बनती है फ़िर चाहे पोस्ट लंबी ही क्यों न हो जाए वैसे भी गांव की बातें जितनी होती रहें उतना अच्छा इससे हमारी गांव जाने की हुमक जोर मारती रहेगी । तो गांव के जीवन में ही हमने सायकल चलाना यानि की सीट तक सायकल चलाना सीखा था वो भी खेत की मेडों पे , अब समझ जाइए कि कित्ते घनघोर सायकलिस्ट रह चुके हैं । लगभग पांच साल तो लगातार गांव से मधुबनी तक और कुल मिलाकर तीस किलोमीटर की सायक्लिंग तो होती ही थी , वो भी कभी पुर्वा तो कभी पछिया पवन के खिलाफ़ और हमें याद है कि एक बार भाजपा की सायकल रैली में अस्सी सत्तर किलोमीटर तक नाप दिया था । और एक कमाल की याद और सुनाएं आपको कि एक बार जिद्दम जिद्द में हमने और हमारे मित्र जयप्रकाश ने मॉर्निंग शो में "लैला मजनू" देखने की ठानी और शायद सत्ताइए अट्ठाइस मिनट में पहुंच मारे थे । आज भी गांव जाने पर सबसे पहला काम यही होता है कि कभी चुपके से तो कभी बताकर मधुबनी का चक्कर मार लेते हैं वो भी सायकिल से । यूं भी सायकल से जाने पर रास्ते रिश्तेदार सरीखे लगने लगते हैं । अब तो इनपर ये दूरी स्थान सूचक शिलाएं भी खूब चमकती हैं ये बताने के लिए कि कितना कट गया कितना बचा , वैसे रोज़ जाने वालों को चप्पे चप्पे की पहचान हो ही जाती है , दूरी की भी ..
खुद ही देखिए , कित्ती लिल्लन टॉप सी लग रही है एकदम मक्खन । और हमारी सायकिल की हुमक तो छोडिए , इतने सारे टैंपो , ट्रेकर , छोटी छोटी सवारी गाडियां और जाने क्या क्या पूरे दिन रात गुडगुडाती रहती हैं । अब वो आधे एक घंटे का इंतज़ार नहीं होता है ,अब तो बस आइए धरिए और फ़ुर्रर्रर्र ....। लेकिन यहां ये बात बताना नहीं भूल सकता कि इन सडकों पर बढती रफ़्तार ने अकाल मौतों की दर में अचानक भारी इज़ाफ़ा किया है और क्यूं न हो , जब सरकार ने खुद अद्धे पव्वे , थैली , बाटली का इंतज़ाम चौक चौराहों पर खूब बढा दिया है , इसकी चर्चा आगे करूंगा विस्तार से ....आप सडक देखिए और हमारी दौडती हुई सायकल ...
पिछली बार जब लौटे थे तो मधुबनी और हमारे गांव के लगभग बीच में पडने वाला कस्पा , रामपट्टी का ये स्कूल भवन निर्माणरत था । अबके चकाचक बन कर तैयार मिला ...........
सतियानाश जाए , इसपर इतराते हुए हम चले जा रहे थे कि बीच में ये उधडन सी मिल गई । हमें भारी गुस्सा आया , और अब हम सोचने पर मजबूर हुए कि दो साल की घिसाई में इनका ये हाल हुआ है , दस साल तो कतई नहीं , हमने उमर जादा बढा दी क्या ???? खैर ,
इस और इन जैसी सडकों का पहला प्रभाव तो हमने आपको घुरघुराते टैंपो, मैजिक , के रूप में दिखा ही दिया अब दूसरा जो हमें महसूस हुआ उसके दो पहलू हैं । एक है बिन्नेस वाला और दूसरा एग्रीकल्चर वाला । आजकल गन्नों की पेराई और गुड की सप्लाई का बिन्नेस हमने सबसे ज्यादा पनपते देखा , ईंट के भट्ठों से भी ज्यादा का बिन्नेस । हम ऐसे ही एक पर रुके । यहां मिले युवक संतोष साव ने विस्तार से बताया कि । एक बडे कडाह में जितना गुड उबाला जाता है उसे पहले बडे पर और इसके बाद इससे छोटे पर उबाला जाता है , एक कडाही उबाले गुड से एक गुड का बडा ढेला तैयार किया जाता है । पूरे दिन में ऐसे एक पेराई ठिकाने से दस ढेले तैयार किए जाते हैं रोज़ाना। मैंने संतोष से पूछा कि क्या उन्हें राज्य की तरफ़ से कोई सहायता या प्रोत्साहन , नहीं । यदि मेवे डाल कर सुगंधित गुड बनाने का ऑर्डर मिले तो बना सकते हैं , लेकिन देसी गुड का स्वाद ही अपना होता है , उन्होंने बताया ।
आगे के रास्ते पड कमोबेश दस से भी ज्यादा मिले ऐसे ठिकाने हमें और ट्रक पर गन्ने लादने का स्थान यानि राटन भी देखा हमने । चलो शुक्र है कुछ तो मीठा मीठा चल रहा है प्रदेश में .....
सडक पर खडे ट्रैक्टर में बैठे इन बच्चों की तरफ़ जैसे ही मैंने कैमरा मोडा दोनों अकचका गए मगर मेरे कहने पर खिलखिलाने भी लगे ।
जब रास्ते में गर्रर्रर्रर्र पों होगी तो बिना तेल के राधा कैसे नाचेगी सो राजकीय पथ संख्या 52 पर आपको तेल पेट्रोल भरवाने का पंप भी मिलेगा , और उसमें पेट्रोल डीजल भी ...........
आगे सडक किनारे के मकानों वाली दीवारों पर हमें इस शैक्षणिक संस्थान के विज्ञापन के अलावा भी बहुत सारे विज्ञापन पढने को मिले , यानि कि कुछ तो बदल रहा है और बढिया बदल रहा है , ...
मधुबनी बाज़ार में भी खूब रौनक देखने को मिली । और लगभग उतनी ही भीडभाड भी । फ़ोटो मैने बाज़ार की इसलिए नहीं ली कि क्या पता एकाध कोई पत्रकार समझ कौनो स्टिंग फ़्टिंग के चक्कर में कैमरा समेत हमारा शिकार करे ।
हां जैसा कि मैं ऊपर आपको बता रहा था कि इस नई सरकार के बही खाते में एक कमाल का तमगा ये लग रहा है कि इसने सबको नशेडी और शराबी बनाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोडी है और इसी क्रम में मुझे पता चला कि सरकार ने खुद एक घोषणा भी छोडी है हर बेवडा चौक पे कि नशा मुक्त गांव को भारी ईनाम से नवाज़ा जाएगा , जे बात :) इसे कहते हैं कांटे की कंपटीसन ..............चलिए आगे फ़िर बताएंगे , सुनाएंगे और हां दिखाएंगे भी .............
आप कितने ही आधुनिक चित्र दिखा दें, दो तीन के बाद असली गाँव दिखने लगता है।
जवाब देंहटाएंहां असली गांव तो अब भी दिख जाता है गांव में
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