अब यदि आज के बच्चों से आप ये कहिएगा कि एक ज़माने में हम मुहल्ले के उस इकलौते घर , जिसमें ब्लैक एंड व्हाइट टीवी होता था , उस घर में रविवार को नहा धो कर टीवी के आगे बिछाई गई दरी चादर , न भी हो तो क्या गम था , पर जम जाने की कशिश बयां करने से परे का आनंद था , टीवी की स्क्रीन दिखाई देनी चाहिए थी और आवाज़ बराबर सुनाई देनी चाहिए थी बस । और अगर खुशकिस्मती से मुहल्ले का वो इकलौता घर आपके किसी जिगरी दोस्त का निकल जाए तो फ़िर तो आपकी बल्ले बल्ले , समझिए कि दोस्त के साथ कुर्सी सोफ़े या उसकी चौकी पर उसके साथ बैठ कर आपको छब्बीस जनवरी की परेड को वी आई पी पंडाल में बैठ के देखने टाईप की फ़ीलींग आ सकती थी । और हमारे उन दिनों के दोस्त खूब गुजरे होंगे कि उन दिनों जिसके पास क्रिकेट का बैट होता था उसके कैप्टन बनने के चांस ज्यादा होते थे , और उसी तरह जिसके घर पे संडे को टीवी देखना तय था खेल में उसका एक आध बार ज्यादा आउट होना कोई बुरी बात नहीं थी । और हिम्मत की दाद तो ये सुनकर दी जा सकती है कि , बीच कार्यक्रम में "रुकावट के लिए खेद है " को हम आधा आधा घंटा यूं अपलक निहारते थे कि मानो एक सीन भी निकलना नहीं चाहिए ।
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ब्लैक एंड व्हाइट टीवी को धक्का मारा हमारे अप्पू जी की पूंछ और सूंड ने । जी हां भारत में रंगीन टेलीविज़न का चलन 1982 में भारत में आयोजित पहले एशियाड खेलों के आयोजन के साथ ही हुआ था । रामायण और महाभारत सरीखे धारावाहिक यकायक ही ज्यादा चमकदार दिखने लगे थे । मगर टीवी के साथ जुडी यादों का जब जब ज़िक्र आएगा तब तक उसके साथ थोडे दिनों के बाद आया वो एक रात के लिए किराए पे वीसीडी और तीन वीडियो कैसेट लाकर पूरी रात जागकर उसे देखने का दौर । वाह क्या दौर था वो भी , एक रात में तीन तीन फ़िल्में वो भी लगातार , बिना किसी ब्रेक श्रेक के ।
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अक्सर शनिवार की रात को चुना था ऐसी घनघोर फ़िल्मी रात के लिए , वैसे बाद में किसी खास अवसर , मौके पर भी एक तय कार्यक्रमों और सबसे ज्यादा पसंद किए जाने वाले आयोजनों में से एक यही होता था वीसीडी किराए पे लाओ , और उसके साथ अपने पसंद की तीन वीडियो कैसेट खरीद के लाओ , पूरी रात दीदे फ़ाड के उन तीनों पिक्चरों को एक सांस में देख जाओ , हालांकि जो चतुर होते थे वे चार ले आते थे क्योंकि किराए पे जा जाकर घिसी हुई वीडियो सीडी कई बार ऐन मौके पर धोका दे जाती थी और कई बात तो ससुरा वीसीडी प्लेयर ही अड कर टैं बोल जाता था , दिल खोल के गालियां पडती थी वीडियो कैसेट लाइब्रेरी चलाने वाले को ।
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लेकिन सिर्फ़ ऐसा नहीं था कि ये इत्ता आसान सा आयोजन होता था जी , पहले तो घर में इसी बात पर महाभारत छिड जाती थी कि वो तीन पिक्चरें कौन सी होंगी , एक दिन पहले से ही घनघोर माथापच्ची के बाद एक लिस्ट फ़ाइनल की जाती थी कम से कम पांच सात पिक्चरों वाली , उन्हें वरीयता के क्रम से टिकाया जाता था , मसलन अमिताभ बच्चन या धरमिंदर पाजी की नई वाली फ़िल्म अगर उपलब्ध नहीं है तो मिठुन दा वाली ली जा सकती है । मम्मी , चाची , मासी के सामाजिक फ़िल्मों की लिस्ट में से एक का सलेक्शन नहीं किए जाने पर वीटो किया जा सकता था ,मगर उसका तोड बच्चे यूं निकालते थे कि वीडियो लाइब्रेरी से वापस आने पर कह देते थे कि आपकी वाली फ़िल्म तो मिली ही नहीं , बदले में अपनी वाली पसंद की ही दोनों उठा लाए ।
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सबको पता होता था कि कौन कौन सी संभावित पिक्चरें लाई और लगाई जाने की संभावना है इसलिए शाम से ही कमर कस के तैयार हो लेते थे । उस शाम को खाना जल्दी खा लिया जाता था अमूमन दिनों से काफ़ी पहले ताकि जल्दी से निबट कर पहली वाली फ़िल्म को जल्दी शुरू किया जा सके । और खूब हो हल्ले के बाद सबसे ज्यादा हल्ले से ही ये निर्णय होता था कि बच्चों को पसंद आने वाली पहले चलाई जाएगी । इसके बाद अगली फ़िल्म वही सामाजिक पारिवारिक घरेलू , राज किरन , फ़ारुक शेख और अमोल पालेकर जी वाली चलाई जाती थी ,सबसे अंत में जो बचती थी वो । अगर कभी खुशकिस्मती और बदकिस्मती से एक ही अभिनेता की दो या कभी कभी तीनों ही फ़िल्में हुईं तो मजाल है कि सुबह तक ये याद हो कि अमिताभ बच्चन ने कादर खान का मुंह किसमें तोडा था और अमरीश पुरी के दांत किसमें ।
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इससे जुडा एक दिलचस्प किस्सा मुझे ये भी याद आ रहा है कि उन दिनों एक बार मांसी के गांव में मौसेरे भईया लोगों ने एक छोटा साला हॉलनुमा कमरा किराए पे लेकर , लगातार दस दिनों तक वीडियो सीडी प्लेयर किराए पे लेकर , टिकट लगा कर बहुत सारी फ़िल्में दिखाईं थीं । इस वीडियो फ़िल्मोत्सव के बीच में पहुंचे मुझे एक दिन ये जिम्मेदारी दी गई कि मैं रिक्शे पे बैठ कर शाम को दिखाई जाने वाली पिक्चर "सन्यासी" का प्रचार कर आउं । मैंने बिना जाने समझे आव देखा न ताव और खूब ढिंढोरा पीट आया , मासियों , नानियों और मामियों को भी बडा घनघोर वर्णन कर आया कि , कित्ती धार्मिक फ़ीलिंग वाली पिक्चर है , बाद में वीसीडी कवर पर उसका पोस्टर देख कर मैं समझ गया था कि शाम को पिक्चर देखने के वाद वे सब मुझे ही ढूंढने वाली थीं ....
सोचता हूं कि कहां वो आनंद वो रोमांच अब मिलता है चकाचौंध भरे महंगे मल्टीप्लैक्स में फ़िल्म देखने में भी
जाने कहाँ गये वो दिन ..
जवाब देंहटाएंहां हम भी उन्हें ही तलाश रहे हैं
हटाएंवाह... आपने दिन बना दिया अजय भाई!!! इत्ते दिनों बाद ब्लॉग जगत की किसी पोस्ट को पढ़कर इत्ता मज़ा आया... पुरानी यादे चलचित्र की तरह नज़रों के सामने झूम सी गई!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया और आभार शाह नवाज़ भाई
हटाएंहमारे यहाँ तो कई घंटे इसी बात पर चर्चा होती थी कि कौन तीन फिल्में हों।
जवाब देंहटाएं:) :) :)
हटाएंपोस्ट को मान देने केलिए आभार
जवाब देंहटाएंशादियों में भी तो पहले हो चुकी शादियों की वीडियो कसेट भी तो देखी जाती थी ... बहुत कुछ याद आ गया :)
जवाब देंहटाएंहां ऐसा भी खूब होता था , आपने तो एक नई पोस्ट का आइडिया दे दिया , अब अगली पोस्ट "बियाह के बाद " लिखने का मूड बना लिए हैं । शुक्रिया और आभार
हटाएंहम सब की पुराने दिनों की याद ताजा कर दी,अजय भाई !
जवाब देंहटाएंआपका शुक्रिया और आभार राजीव भाई
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