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रविवार, 2 जनवरी 2011
जस्ट सम post bytes : झा जी इश्टाईल
शनिवार, 1 जनवरी 2011
द फ़र्स्ट डे प्रोमो ऑफ़ २०११ , पोस्ट झलकियां ….भईया जी ..इश्माईल
आप सबको वर्ष २०११ के शुभआगमन पर बहुत बहुत शुभकामनाएं
WEDNESDAY, DECEMBER 29, 2010
'ईश्क का मंजन' गीत का भावार्थ
प्रस्तुत मादक गीत हिन्दी सिनेमा जगत की आने वाली बहुचर्चित फिल्म 'यमला पगला दीवाना' से उद्धृत है. इसमें एक युवा स्त्री के प्रेम त्रिकोण को दर्शाया गया है. एक कोण पर वह खुद है, दूसरे कोण पर एक वृद्ध आशिक और तीसरे कोण पर वृद्धावस्था की ओर अग्रसर उसके दो बेटे हैं.
O le gayi, le gayi, le gayi
are baap ri, dilon ki saakhri
zindagi le zin, karle tu jhim jhim
maar ki chalti jaaye, dil kare haaye haaye
jawan kar dil chali kyun kar ke tu bye bye
garam garam tu jali jali, nari patakha kahan chali
गीत की शुरुआत किसी भी अन्य आयटम गीत की तरह होती है. दर्जनों छिछोरे एक युवा स्त्री के चारों ओर मधुमक्खियों की तरह भिनभिना रहे हैं और उसके सौंदर्य का वर्णन अपनी भाषा में कर रहे हैं. वो भांति-भांति के शब्दों से अपनी भावोदशा के बारे में भी बता रहे हैं. जब वो 'गरम गरम तू जली जली' शब्दों का प्रयोग करते हैं तो बोध होता है वो किसी ढाबे में काम करने वाले युवक हैं.
JANUARY 1, 2011
थोड़ी सी शराब और बहुत सा सुकून बरसे...
ये बेदखली का साल था. हर कोई अपनी ज़िन्दगी में छुअन के नर्म अहसासों को तकनीक से रिप्लेस करता रहा. सौन्दर्यबोध भी एप्लीकेशंस का मोहताज हो गया था. हमने अपनी पसंद के भविष्यवक्ता और प्रेरणादायी वक्तव्य पहुँचाने वाली सेवाएं चुन रखी थी. सुबहें अक्सर बासी और सड़े हुए समाचारों से होती रही. शाम का सुकून भोर के पहले पहर तक दम तोड़ने की आदत से घिरा रहा. कभी किसी हसीन से दो बातें हुई तो कुछ दिन धड़कने बढ़ी फिर बीते सालों की तरह ये साल भी बिना किसी डेट के समाप्त हो गया.
पिछले साल एक किताब कभी रजाई से झांकती तो कभी उत्तर दिशा में खुलने वाली खिड़की में बैठी रहा करती. कभी ऑफिस में लेपटोप केस से बाहर निकल आती फिर कभी शामों को शराब के प्याले के पास चिंतन की मुद्रा में बैठी रहती. मैं जहां जाता उसे हर कहीं पाता था. कुछ एक पन्नों की इस किताब के एक - एक पन्ने को पढने में मुझे समय लगता जाता. आखिर दोस्त अपने परिवारों में मसरूफ़ हुए, ब्लॉग और फेसबुक पर ख़त-ओ-किताबत कम हुई और मैंने उसे पढ़ लिया. इसे पढने में मुझे कोई आठ - नौ महीने लगे हैं.
शुक्रवार, ३१ दिसम्बर २०१०
लिखते हुए साल की अंतिम कविता
प्रिये !
लिखते हुए
साल की अंतिम कवितायाद आए मुझे
कुछ भयावह स्वप्न
जिन्हें शब्द देना
नहीं है वश में
लग रहा है
मानो किसी प्रार्थनाघर में हूँ
मेरे चारों ओर हो रहे हैं धमाकेचीख और उसकी ख़ामोशी की सिसकियों के बीच
लहुलुहान देख रहा हूं
कुछ अजीब से चेहरे जिनकी हंसी
लिपटी है तरह-तरह के झंडों में
लेंस से लद्दाख
नए साल के मौके पर आबीर की तस्वीरें मिली हैं। कस्बा पर आबीर की तस्वीरें पहले भी लगा चुका हूं। कोलकाता में पले-बढ़े आबीर अहमदाबाद के एनआईडी के छात्र रहे हैं। फिल्म निर्माण से भी जुड़े रहे हैं। फिल्मी डिज़ाइन में उनकी गहरी दिलचस्पी रहती है। लेकिन कई बार अपनी रचनात्मकता को बचाने के लिए वे खुद को रूटीन कामों से दूर कर लेते हैं और यायावरी करने लगते हैं। कई महीनों से लद्दाख और जम्मू-कश्मीर को अपनी कर्मभूमि बना कर यहां काम कर रहे हैं। उम्मीद है उनकी ये तस्वीरें आपको फिर से पसंद आएंगी
शुक्रवार, ३१ दिसम्बर २०१०
इस साल का सर्वश्रेष्ठ भारतीय
2010 का सर्वश्रेष्ठ भारतीय - डा. बिनायक सेन
Posted by Rangnath Singh
FRIDAY, DECEMBER 31, 2010
नए साल क़ी शुभकामनाएं- सर्वेश्वर
खेतों की मेड़ों पर धूल भरे पाँव को,
कुहरे में लिपटे उस छोटे से गाँव को,
नए साल की शुभकामनाएं.
जांतें के गीतों को, बैलों की चाल को,
करघे को, कोल्हू को, मछुओं के जाल को,
नए साल की शुभकामनाएं.
इक पकती रोटी को, बच्चों के शोर को,
चौके की गुनगुन को, चूल्हे की भोर को,
नए साल की शुभकामनाएं.
वीराने जंगल को, तारों को, रात को,
ठंढी दो बंदूकों में घर की बात को,
नए साल की शुभकामनाएं.
इस चलती आंधी में, हर बिखरे बाल को,
सिगरेट की लाशों पर फूलों से ख़्वाब को,
बधाईयों की किंकर्तव्यविमूढ़ता
पिछले कुछ दिनों से परेशान हूँ, सोशल नेट्वर्किंग साईट्स पर नववर्ष की शुभकामनाओं से.. ऑरकुट पर मेरे जितने भी मित्र हैं लगभग उन सभी को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ, अगर वे मेरे वर्चुअल मित्र हैं तब भी वे आम वर्चुअल मित्र की श्रेणी में नहीं आते हैं.. मगर फेसबुक पर कई लोग ऐसे हैं जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता हूँ और वे लोग ही वर्चुअल शब्द के खांचे में फिट बैठते हैं.. अब ऐसे में जब कोई नववर्ष की शुभकामनाएं भेजते हैं तो मेरे लिए यह किंकर्तव्यविमूढ़ वाली स्थिति हो जाती है.. बधाई के उत्तर में या तो सिर्फ औपचारिकता के लिए आप भी उन्हें उसी तरह कि शुभकामनाएं भेजें, अथवा कुछ भी जवाब ना देकर खुद को एक घमंडी व्यक्ति के रूप में स्थापित कर लें..
मुझसे औपचारिकता निभाना किसी भी क्षण में बेहद दुष्कर कार्य रहा है, और उससे अच्छा खुद को एक अहंकारी व्यक्ति कहलाना अधिक आसान लगता है.. मजाक में कहूँ तो, "अगर मनुष्य एक सामजिक प्राणी है तो मुझमें शत-प्रतिशत मनुष्य वाला गुण शर्तिया तौर से नहीं है.." :)
शनिवार, १ जनवरी २०११
ख़ुदा हाफ़िज़ ओ नासिर
..........ख़ुदा हाफ़िज़ ओ नासिर
__________________________
ऐ आबिद ए बीमार ख़ुदा हाफ़िज़ ओ नासिर
ऐ बेकस ओ ग़मख़्वार ख़ुदा हाफ़िज़ ओ नासिर
ऐ क़ाफ़िला सालार ख़ुदा हाफ़िज़ ओ नासिर
ऐ सब्र के मे’यार ख़ुदा हाफ़िज़ ओ नासिर
SATURDAY, JANUARY 1, 2011
हिंदी भाषा मेरी शान है , मेरी पहचान है -- मेरा १०० वां लेख !
अपनी राष्ट्रभाषा हिंदी पर अपना शतकीय लेख लिखते हुए मन में अपार प्रसन्नता है।
हिंदी ब्लॉग जगत से जुड़ने के बाद , पहली बार हिंदी भाषा से प्रेम हुआ और मन में अपारसम्मान पैदा हुआ अपनी राष्ट्र भाषा के लिए। इसके पहले कभी सोचा ही नहीं इस था विषय पर।शायद अंग्रेजी स्कूलों में पढ़कर brainwash हो गया था , जहाँ हिंदी का एक शब्द बोलना भीगुनाह होता था और उसके उस गुनाह के लिए शिक्षकों द्वारा बेरहमी से उँगलियों के जोड़ों [knuckles ] पर, लकड़ी की मोटी पटरी से मारा जाता था। तथा प्रति शब्द एक रूपए का जुरमानादेना होता था।
इस यातना से बचने के लिए , कोई भी विद्यार्थी हिंदी बोलने का गुनाह नहीं करता था। इसेलिखते समय अपने Loreto Convent और Canossa Convent के शिक्षक [ Mother Superior, Mother terressa , sister Fillo , sister Lidwin , sister tessel ] आदि आँखों के सामने तैरगए, जिनसे बहुत बार हिंदी बोलने की सजा पायी थी। .
इसके बाद उत्तरोत्तर उच्च शिक्षा में तो हिंदी भाषा में किताबों का अकाल सा रहता है। मेडिकल केदौरान भी विदेशी लेखकों [ Davidson, Parkinson , Hutchinson ] की अंग्रेजी में लिखीकिताबों को ही पढ़कर डिग्री हासिल की।
शुक्र है माता-पिता और आस-पड़ोस वालों का जिनके कारण हिंदी में वार्तालाप का मौक़ा मिलताथा तथा हिंदी सीखने में मदद मिली। वरना कितनी शर्म की बात होती की एक हिंदी राज्य मेंरहकर और हिंदी मात्र-भाषा होने के बावजूद हिंदी नहीं आती।
मायके जाने का सुख
1.1.11
आप पढ़ना प्रारम्भ करें, उसके पहले ही मैं आपको पूर्वाग्रह से मुक्त कर देना चाहता हूँ। आप इसमें अपनी कथा ढूढ़ने का प्रयास न करें और मेरे सुखों की संवेदनाओं को पूर्ण रस लेकर पढ़ें। किसी भी प्रकार की परिस्थितिजन्य समानता संयोगमात्र ही है।
मायके जाना एक सामाजिक सत्य है और एक वर्ष में बार बार जाना उस सत्य की प्राण प्रतिष्ठा। पति महत्वपूर्ण है पर बिना मायके जाये सब अपूर्ण है। कहते हैं वियोगी श्रंगार रस, संयोगी श्रंगार रस से अधिक रसदायक होता है, बस इस सत्य को रह रह कर सिद्ध करने का प्रयास भर है, मायके जाना। कृष्ण के द्वारिका चले जाने का बदला सारी नारियाँ कलियुग में इस रूप में और इस मात्रा में लेंगी, यदि इसका जरा भी भान होता तो कृष्ण दयावश गोकुल में ही बस गये होते। अब जो बीत गयी, सो बीत गयी।
पुरुष हृदय कठोर होता है, नारी मन कोमल। यह सीधा सा तथ्य हमारे पूर्वज सोच लिये होते तो कभी भी उल्टे नियम नहीं बनाते और तब विवाह के पश्चात लड़के को लड़की के घर रहना पड़ता। तब मायके जाने की समस्या भी कम होती, वर्ष में बस एक बार जाने से काम चल जाता और बार बार नये बहाने बनाने में बुद्धि भी नहीं लगानी पड़ती। अपने घर में बिटिया को मान मिलता और दहेज की समस्या भी नहीं होती। लड़की को भी नये घर के सबके स्वादानुसार खाना बनाना न सीखना पड़ता। यदि खाना बनाना भी न आता तब भी कोई समस्या नहीं थी, माँ और बहनें तो होती ही सहयोग के लिये हैं। सास-बहू की खटपट के कितने ही दुखद अध्याय लिखे जाने से बच जाते। कोई बात नहीं, ऐतिहासिक भूलें कैसी भी हो, अब परम्परायें बन चुकी हैं, निर्वाह तो करना ही पड़ेगा।
शुक्रवार, ३१ दिसम्बर २०१०
कालो न यातो ......
कितना सही कहा गया है --कालों न यातो-वयमेव याता. अर्थात समय नहीं जाता हम लोग जाते हैं.यह जीवन कीसचाई है इससे हममुह नहीं मोड़ सकते.इतनी खरी-खरी बात अभी नव वर्ष की पूर्व संध्या पर आयोजित एक पार्टी में अपने समय की एक मशहूरहस्ती नें, नव वर्ष की अग्रिम शुभकामनाओं सहित हम लोंगों के साथ कही.मुझे अचानक यह बात सुखद मौके पर बड़ी अटपटी सीलगी ,माहौल बोझिल लगनें लगा लेकिन बाद में मैंने सोचा तो लगा यार बात तो सौ टके की सही है.प्रतिवर्ष नव वर्ष का इन्तजारकरते-करते हम यह नहीं सोचते कि हम कितनें बरस के हो गये.और हर साल हमे क्या दे रहा है केवल नई-नई चुनौतियाँ -नये-नये समीकरणों के साथ तालमेल,नई जिम्मेदारियां.यानि कि अब शंख वाले-पंख वाले दिन कहाँ गये.उन दिनों, कल की कभीचिंता नहीं होती थी,केवल और केवल चिंता यह होती थी कि नववर्ष की पूर्व संध्या और नव वर्ष का दिन कहाँ-किन मित्रों के साथमनाना है.अब तो लगता है इतनी जल्दी-जल्दी क्यूँ आ रहा है यह नया साल.साल दर साल बीत रहे हैं और हम एक सुखमय समयकी प्रतीक्षा में चुक रहे है जो मृगतृष्णा के रूप में है-नहीं मिल रही है.
नए साल की कुछ नई कसमे - - - - - - - - -mangopeople
लो जी कल से नया साल शुरू हो जायेगा कुछ लोगों के लिए तो बस तारीख बदलने वाली है पर कुछ महान, सामर्थवान, हिम्मत वाले लोगों के लिए ये एक नई शुरुआत है असल में हर साल वो एक नई शुरुआत करते है | ये वो विशेष लोग है जो हर साल नवम्बर से ही कुछ कसमे वादे खाने की रस्म खुद से परिवार से दोस्तों से करना शुरू कर देते है कि अगले साल से मै अपनी एक बुरी आदत छोड़ दूंगा या कुछ नया शुरू करूँगा | सभी अपने हिसाब से एक कसम खाते है जैसे
सिगरेट पीना छोड़ दूंगा या
शराब पीना छोड़ दूंगा या
जिम जाना शुरू कर दूंगा |
रोज सुबह जागिंग शुरू करूँगा |
घर पर ही कसरत शुरू कर दूंगा |
मीठा, तला भुना, जंक फ़ूड खाना बंद कर दूंगा |
अब से जम कर पढाई करूँगा |
जीवन को और कैरियर को गंभीरता से लूँगा |
सारा समय घर गृहस्थी में बर्बाद हो जाता है इस बार जरुर कुछ नया सीखूंगी |
इस साल छुट्टियों में हम कही जरुर घूमने जायेंगे |
इस साल से फिजूल खर्ची नहीं करूँगा कुछ बचत भी करूँगा |
Friday, December 31, 2010
मुश्किल है जीना उम्मीद के बिना...
मुश्किल है जीना उम्मीद के बिना
थोड़े से सपने सजायें
थोड़ा सा रूमानी हो जाएँ...2010 की आख़िरी शाम बैठ के बीते साल पे नज़र दौडाती हूँ... सोचती हूँ... कितना कुछ बीता, कितना कुछ बदला इस बीते साल में... हमारे आस पास... हमारे साथ... हमारे अपनों के साथ... कुछ नये दोस्त मिले, कुछ बिछड़े... कुछ नाम के रिश्ते टूटे... कुछ बेनाम रिश्ते जिये... बहुत कुछ बदला... वक़्त बदला... हालात बदले... ख़ुशी और प्यार का पैमाना भी... हाँ, कुछ हादसों और कुछ हौसलों के बीच कुछ नहीं बदला तो वो है "उम्मीद"... उम्मीद, की वो इंतज़ार है जिसका वो सहर कभी तो आएगी... वो सहर जब धुएँ और धूल से दूषित इस वातावरण में भी सूरज की किरणें हम तक अपनी रश्मियों की मुलायमियत पहुँचायेंगी... जब लोग यू.वी. और अल्ट्रा रेड किरणों के डर के बिना धूप सेक सकेंगे, एक बार फिर... वो सहर जब सपने नींद से निकल कर साकार होंगे... वो सहर जब हम रिश्तों और भावनाओं की तिजारत बन्द कर देंगे... प्यार करने से पहले उसके साइड इफेक्ट्स के बारे में सोचना बन्द कर देंगे... वो सहर जब दिमाग़, दिल का रास्ता काटना छोड़ देगा... हर फैसले से पहले...
2011: फिर नया साल और पुराना मैं
फिर नया साल और पुराना मैं
फिर चला लेके ताना बाना मैं ...
मैंने आखिर भुला दिया है सब
तेरे सजने की कवायद की खनक
तेरी परियों की सजावट सी चमक
तेरी खामोश निगाही का सबब
तेरी दस्तक की ज़बां का मतलब
मैंने आखिर भुला दिया है सब
यूँ भी थोडा ही तुझको जाना मैं
फिर चला लेके ताना बाना मैं
फिर नया साल और पुराना मैं ...
SATURDAY, JANUARY 1, 2011
छह साल से लिया है शब्दों से पंगा
... सफ़र के पाठक बलजीत बासी को सिर्फ़ एक साथी के तौर पर जानते हैं। बासी जी मूलतः पंजाबी के कोशकार हैं। पंजाब विश्वविद्यालय के अंतर्गत पंजाबी-अंग्रेजी कोश की एक बड़ी परियोजना से दो दशकों तक जुड़े रहे। ज़ाहिर है शब्द व्युत्पत्ति में उनकी गहन रुचि है।बाद में वह प्रोजेक्ट पूरा हो जाने पर वे अमेरिका के मिशिगन स्टेट में जा बसे। अब कभी कभार ही इधर आना होता है। वहाँ भी वे अपना शौक बरक़रार रखे हैं। अमेरिका में खासी तादाद में पंजाबीभाषी बसे हैं और इसीलिए वहाँ कई अख़बार, मैग़ज़ीन आदि इस भाषा में निकलते हैं। इनमें से एक है शिकागो, न्यूयॉर्क औरसैनफ्रान्सिस्को से प्रकाशित होने वाला साप्ताहिक पंजाब टाइम्स, जिसमें वे नियमित स्तम्भ लिखते हैं। बासी जी ने इसके ताज़ा अंक में सफ़र के पुस्तकाकार आने के संदर्भ में एक परिचयात्मक आलेख लिखा है जिसका गुरुमुखी से देवनागरी में किया मशीनी अनुवाद खुद उन्होंने हमें भेजा है। उन्होंने ताक़ीद किया है कि इसमें से हम जो चाहें काट सकते हैं, सिवाय उन अल्फ़ाज़ के जो उन्होंने हमारी तारीफ़ में कहे हैं। हम पूरा आलेख दो किस्तों में छाप रहे हैं। आप समझ ही गए होंगे क्यों। अब सेल्फ प्रमोशन और मार्केटिंग का ज़माना है, सो हम भी पूरी बेशर्मी से अपने ही ब्लॉग पर मियाँ मिट्ठू बनने की हिमाक़त दिखा रहे हैं। पिछली कड़ी आपने पढ़ी-अमेरिकी पंजाबी पत्रिका में शब्दों का सफ़र अब अगली कड़ी पेशे ख़िदमत है।
शब्दों का मुसाफ़िर-2/बलजीत बासी
जीव-विकास सिद्धांत के अनुसार आदिकाल में सारी मानवजाति की एक ही भाषा होनी चाहिए। निरुक्त विषय ही ऐसा है, इसका साधक एक समय-स्थान पर स्थिर हो गया, समझो गया। वडनेरकर जाति का ब्राह्मण है और उसका मानना है कि ब्राह्मणों का असली काम ज्ञान ढूँढना और आम लोगों में बाँटना है। वह रात एक बजे ड्यूटी से फ़ारिग होते सीधे घर पहुंचता है जहाँ मेज़ पर खुले दो दरजन कोश और ढेर सारी और पुस्तकें उसका इन्तज़ार रही होती हैं। वह पाँच बजे तक लिखता है और फिर सफ़र की ताज़ा कड़ी ब्लॉग के हवाले करता है। फिर दस-ग्यारह बजे उठकर पोस्टिंग की कमियाँ दूर करता है। बस, इस के बाद घंटा डेढ़ घंटा और सो कर परिवार के साथ खाना खाता और फिर दफ़्तर दौड़ जाता है। टुकड़ों में बँटी नींद कभी पूरी नहीं होती। 'शहर सूता, ब्रह्म जागे' वाली नाथों-जोगियों वाली कहावत उस पर लागू होती है।
वडनेरकर ने शब्दों का यह पंगा कोई छह साल से लिया हुआ है जब से दैनिक भास्कर में उस का यह कालम लगातार छप रहा है। उस का कहना है-
ब्लॉगवुड के लिए नववर्ष पर 12 कामनाएं...खुशदीप
पहले इन तारीखों पर गौर करिए...
1.1.11,
11.1.11,
1.11.11,
11.11.11,
ये सब तारीखें इसी साल आनी है...
‘हीरो’ फ़िल्म के बारे में
किशोरावस्था में मार्शल आर्ट फिल्मों से पहला परिचय हुआ था और ब्रूस ली एवं जैकी चैन की बहुत फ़िल्में देखीं. बाद में उनसे उकताहट होने लगी क्योंकि सभी में एक जैसी कलाबाजियों वाली फाईट देखकर मन भर गया. जेट ली की कोई फिल्म हाल तक नहीं देखी थी क्योंकि उसकी फिल्मों में भी वही हू-हा उछलकूद रहती है, कहानी भी हर फ़िल्म की एक-सी ही होती है.
इस तरह पिछले दस सालों में न तो सिनेमाहाल में और न ही घर में मार्शल आर्ट की कोई फिल्म देखी. कुछ दिनों पहले एक मित्र ने जेट ली की वर्ष 2000 में बनी फिल्म ‘हीरो’ देखने के लिए बहुत जोर डाला. उसने यह कहा कि यह फिल्म मार्शल आर्ट की होने के बाद भी गहन दार्शनिक प्रश्नों को बूझती है. मैंने यह फिल्म देखी और मुझे यह बहुत अच्छी लगी. इसी फिल्म के बारे में इस पोस्ट में चर्चा की गयी है जिसके लिए इसकी विकीपीडिया प्रविष्टि और रोज़र ईबर्ट के रिव्यू को आधार बनाया गया है.
हीरो का निर्माण चीन/हौंगकौंग के निर्देशक झांग ज़िमोऊ ने किया था. इसकी केन्द्रीय भूमिका जेट ली ने निभाई है. फिल्म ईसापूर्व वर्ष 227 में चीन के क़िन प्रांत के शासक जिंग की हत्या के प्रयासों पर आधारित है. हीरो उस वक़्त तक चीन में बनी सबसे महंगी फिल्म थी और आज तक यह सबसे ज्यादा कमाई करनेवाली चीनी फिल्म है. फिल्म में संवाद अधिक नहीं है और इसे अंग्रेजी सबटाइटल्स में देखा जा सकता है.
सुप्रीम कोर्ट की महिला जज के लिए बोझ हैं बेटियां?
Wednesday, December 29, 2010 इस कार्यवाही को पेश करने वाले: लोकेश Lokesh
एक चौंकाने वाली घटना में सुप्रीम कोर्ट की जज ज्ञान सुधा मिश्रा ने अपनी बेटियों को खुद पर जिम्मेदारी बताया है। जस्टिस मिश्रा ने अपनी 2 कुंआरी बेटियों को साल 2010 के दायित्वों में गिनाया है। जस्टिस मिश्रा ने बेटियों की शिक्षा के लिए लिए गए शिक्षा ॠण को भी जिम्मेदारी में गिनाया है। इसके अलावा जस्टिस मिश्रा ने रिटायरमेंट के बाद मकान बनाने की योजना को भी अपना दायित्व बताया है। गौरतलब है कि ज्ञान सुधा मिश्रा वर्तमान समय में सुप्रीम कोर्ट में इकलौती महिला जस्टिस हैं।
मिश्रा की ओर से सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर जारी संपत्ति के ब्योरे में यह जानकारी दी गई है। ज्ञान सुधा मिश्रा की यह सोच भारतीय मिडिल क्लास की पारंपरिक मानसिकता को दर्शाता है।
जस्टिस मिश्रा का यह रवैया दर्शाता है कि वह बेटियों की शादी में होने वाले खर्च (दान-दहेज सहित अन्य खर्च) से परेशान हैं। गौरतलब है कि इनको खत्म करने के लिए सरकार कानून के साथ-साथ लोगों को जागरूक करने लिए भी अभियान चला रही
Friday, December 31, 2010
कैरेक्टर्स आल्सो ब्रीद एंड फील
हम जब पढ़ रहे होते है, तो अपने भौतिक जीवन के समानांतर, दरअसल एक दूसरी दुनिया भी गढ़ रहे होते हैं। उस गढ़ी दुनिया में फूल, बारिशें, चौराहे, दुख-दर्द सब होते हैं, और हकीकत की ही तरह जीवंत भी। मतलब ‘कैरेक्टर्स आल्सो ब्रीद एंड फील’। ‘भाषासेतु’ के इस नए स्तंभ में विश्व साहित्य के ऐसे यादगार किरदारों पर लिखे जाने की योजना है। जिसकी पहली किस्त में ‘लीविंग लीजेंड’ मार्केस के सर्वाधिक प्रसिद्ध उपन्यास ‘एकांत के सौ वर्ष’ की नायिका ‘उर्सुला’ पर लिख रहे हैं ‘अनिल’। अनिल बिना लाग लपेट के सीधी बात करने वाली प्रजाति के तेज तर्रार युवा पत्रकार हैं, साहित्य से भी खासा लगाव रखते हैं। ‘नए साल की शुरुआत नई चीज़ के साथ’ करने की हमारी सोच को कार्यरूप देने में सहयोग के लिए अनिल का आभार। सभी पाठकों को ‘भाषासेतु’ की तरफ से नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ।
SATURDAY, JANUARY 1, 2011
नया-पुराना साल
बड़ा पक्षपाती है, यह काल का पहिया, जिसे चाहे अल्पावधि में उन्नति के शिखर पर ले जाकर बिठा दे और जिसे चाहे, पतन के गर्त में गिराकर नेस्तनाबूद कर दे, किन्तु इसकी निर्लिप्तता भी प्रशंसनीय है, इसके नीचे चाहे कोई भी आए, बिना चिन्ता किए उसके ऊपर से गुजर जाएगा और इसकी निर्बाध गति को देखिए तो बड़ा अनुशासित और नियमबद्ध जान पड़ता है, किसी की चिरौरी-विनती से यह अपनी गति न बढ़ा सकता और न ही किसी की दुआ-बद्दुआ से गति कम ही करता। वह तो घूम रहा है, घूमता रहेगा।
क्या हमारी यही नियति है कि काल-चक्र के नीचे आकर पिसते रहें? नहीं, ऐसा सोचना अज्ञानता का परिचायक होगा। काल-चक्र की गति अपने साथ चलने की सीख देती है और अपनी अवज्ञा के प्रतिक्रियास्वरूप कभी-कभार हमारे कान भी उमेठ दिया करती है। जीवन को गतिमान रखने के लिए, काल-चक्र के साथ कदम मिलाकर चलने के लिए ही हमारे आदि-गुरुओं ने ज्ञान दिया है -
कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः।
उत्तिष्ठस्त्रेता भवति, कृत सपद्यते, चरश्चरैवेति चरैवेति ...
SATURDAY, JANUARY 1, 2011
कौन होगा जो सूरज के रथ को फिर से साधने का मन बनाएंगा? - अजित गुप्ता
समय दौड़ रहा है। आज सूरज ने भी अपनी रजाई फेंक दी है। किरणों ने वातायन पर दस्तक दी है। हमने भी खिड़की के पर्दे हटा दिए हैं। दरवाजे भी खोल दिए हैं। सुबह की धूप कक्ष में प्रवेश कर चुकी है। फोन की घण्टी चहकने लगी है। नव वर्ष की शुभकामनाएं ली और दी जा रही हैं। हम भारतीयों के जीवन में ऐसे अवसर वर्ष में कई बार आ ही जाते हैं। कभी दीवाली पर हम बेहतर जीवन की आशा लगाए दीप जला लेते हैं तो कभी होली पर रंगीन सपने सजाते हुए रंगों से सरोबार हो जाते हैं। कभी कोई पुरुष-हाथ भाई बनकर बहन के सामने रक्षा सूत्र की कामना से आगे बढ़ जाता है। कभी हम बुराइयों का रावण जला लेते हैं। कभी गणगौर की सवारी निकलाते हैं तो कभी शीतला माता को ठण्डा खिलाते हैं। ना जाने कितनी बार हम एक दूसरे को शुभकामनाएं देते हैं?
बस उस पल में हम अपनों का स्मरण कर लेते हैं। न जाने कितने कुनबे बनाकर हम जीते हैं? सारी अला-बला से बचते हुए अपने-अपने सुरक्षा कवचों के साथ जीवन जीने का प्रयास करते रहते हैं। सब कुछ अच्छा ही हो इसकी सभी के लिए कामना भी करते रहते हैं। हमारी वाणी में शब्द-ब्रह्म आकर बैठ जाता है। सम्पूर्ण वर्ष हमें यही शब्द अनुप्राणित करते हैं, दिग-दिगन्त में गुंजायमान होते रहते हैं।
साल सदियों पुराना पक्का घर है
साल,
दिखता नहीं पर पक्का घर है
हवा में झूलता रहता है
तारीखों पर पाँव रख के
घड़ी पे घूमता रहता हैबारह महीने और छह मौसम हैं
आना जाना रहता है
एक ही कुर्सी है घर में
एक उठता है इक बैठता हैजनवरी फ़रवरी बचपन ही से
भाई बहन से लगते हैं
ठण्ड बहुत लगती है उन को
कपड़े गर्म पहनते हैंजनवरी का कद ऊँचा है कुछ
फरवरी थोड़ी दबती है,
जनवरी बात करे तो मुँह से
धुएँ की रेल निकलती है
एक ब्लॉग संकलक
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक" on Friday, December 31, 2010
मित्रों!आज पूरा ब्लॉगजगत संकलक (एग्रीगेटर) खोज रहा है! मैंने भी वर्ष-2011 की पूर्व संध्या पर एग्रीगेटर का विकल्प खोजने का यह प्रयास किया है!मुझे आशा ही नहीं अपितु विश्वास भी है कि आप अपने ब्लॉग का यू.आर.एल. मुझे मेल...
नई प्रविष्टियाँ
कामना शुभकामना... -नूतन वर्ष की इस सुप्रभातकारी बेला में *'नजरिया'* परिवार की ओर से अपने सभी पाठकों, समर्थकों, प्रचारकों व अपने परिचित-अपरिचित साथियों को इस नूतन वर्ष ...
31 minutes ago
शैशवावस्था में हूँ ........... - आज मै दस की हो ली अब ग्यारहवें वर्ष में प्रवेश किया है चाहती हूँ आप सभी इस आने वाले मेरे दशक में मेरे साथी बनें ये मेरे जीवन का एक बहुत ही उन्नत का...
5 hours ago
ताऊ पहेली - 107 -प्रिय बहणों और भाईयों, भतिजो और भतीजियों आप सबको शनिवार की घणी राम राम और साथ ही आज नये साल 2011 की हार्दिक शुभकामनाएं. साल 2011 की प्रथम और ताऊ पहेली के...
6 hours ago
शुभकामनायें चवन्नी छाप नहीं
...कल रात जहाँ भी शुभकामना सन्देश देने के लिए ट्राई किया, या तो बी एस एन एल साहब ने इनकार कर दिया या मोबाइल उठा भी तो शोर शराबा और हेलो, हेलो ...कट। बन्दों ने पलट कर काल करने की जहमत नहीं उठाई। एस एम एस से मेरी बनती नहीं। बाद में खयाल आया कि उनके मौजा ही मौजा में मैं मूर्ख बेफिजूल हीखलल डाल रहा था। आलसी महराज! तुम्हें रात की पार्टी सार्टी के समय ही सूझी? ग़लत समय पर नेक इरादे!
... मैं तो आज के दिन याद ही करता रह जाता हूँ कि यार! लास्ट टैम इसे कब सेलीब्रेट किया था? याद ही नहीं आता। Such a dull, insipid, bore man!
हाँ, कुछ ग्रीटिंग कार्ड, कुछ फूल, कुछ मुस्कुराहटें अवश्य याद आती हैं।
शुक्रवार, ३१ दिसम्बर २०१०
अलविदा वर्ष २०१० , अब अगले साल से नए अड्डे पर मिला करेंगे ......अजय कुमार झा
जी हां आज जब इस ब्लॉग पर ये पोस्ट लिखने बैठा हूं तो समझ ही नहीं पा रहा हूं कि मन कैसा सा हो रहा है । नहीं इसलिए नहीं कि अब इस वर्ष की ब्लॉग की पढाई लिखाई और टिपाई भी तो हो गई ..अब चलें देखें कि अगले बरस क्या नया , और क्या पुराना ही नए चेहरे के साथ सामने आता है । हां फ़िलहाल जिस दौर से हिंदी ब्लॉगजगत गुज़र रहा है उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाला समय इस समय से जरूर ही बेहतर होगा । और देखिए न जिस तरह से जरूरत रास्ता खुद ब खुद बना लेती है । आज हिंदी ब्लॉगजगत के पास कोई भी ऐसा एग्रीगेटर नहीं है जो हिंदी ब्लॉग पोस्ट को अपने आप पाठकों के पास ले आए । मगर फ़िर भी पाठक पढ रहे हैं , और क्या खूब पढ रहे हैं कुछ भी आसामान्य नहीं लग रहा है । लेकिन जरूरी नहीं कि सबके साथ ही ऐसा हो लेकिन बहुत जल्दी ही आप इस समस्या से भी पार पा ही लेंगे या तो एग्रीगेटर्स पुन: आ जाएंगे , पुराने न सही नए ही सही ....या फ़िर बुरी से बुरी परिस्थितियों में क्या होगा ..आपको तलाश तलाश कर पढने की आदत लग जाएगी ।
इसलिए सबसे पहले तो आप सबसे यही आग्रह करूंगा कि , मेरे इस नए पन्ने पर पहुंचे और उसके साथी (फ़ौलोवर ) बन कर अपनी अंतर्जालीय पसंद में स्थान देने की कृपा करें , ताकि कम से कम आप मुझे अपने डैशबोर्ड पर सीधे ही पा सकें ।फ़िलहाल तो इसी आग्रह के साथ यहां से विदा चाहता हूं कि , इस पगडंडी तक आने के बाद आप उस कच्चे रास्ते पर चले ही आएंगे ..आएंगे न ??
आप सबको नव वर्ष के शुभआगमन पर बहुत बहुत शुभकामनाएं ।
और ये है हमारा नया अड्डा …नीचे देखिए न ..
उस मां ने कहा , हां मुझ जैसी ही कोई मेरी कोख में है…..
Posted By अजय कुमार झा On December 30th 2010. Under रद्दी की टोकरी
वो कांप गया जालिम, कत्ल करने से पहले , गिरेबान पकड के जब .
उस मां ने कहा , हां मुझ जैसी ही कोई मेरी कोख में है…..
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जरूर इस बार अवाम बदल देगी सत्ता की सूरत सीरत,
आरक्षण, भ्रष्टाचार के नाम सडक पर खडी जनता बडे जोश में है ….
सवाल ये नहीं कि क्या किया , या क्या करोगे अभी ,
मुद्दा तो ये है की , क्यों नीयत तुम्हारी खोट में है .???
तो बस आज के लिए इतना ही फ़िल मिलता हूं जल्दी ही ..शुक्रिया । साथ और स्नेह बनाए रखिएगा ..