पिछले वर्ष जून में जब अचानक ही केदारनाथ की आपदा सब पर कयामत बनकर टूटी तो उस त्रासदी के प्रभाव से देश भर के लोगों ने झेला । कुदरत के इस कहर से जाने कितने ही परिवार हमेशा के लिए गुम हो गए , कितने बिखर कर आधे अधूरे बच गए , जाने कितने ही परिवार में बचे खुचे लोग मानसिक अवसाद से ग्रस्त होकर रुग्ण होकर रह गए । केदारनाथ त्रासदी के बाद इस दुर्घटना के कारणों पर किए गए शोध , विश्लेषण आदि से ये तथ्य निकल कर सामने आया था और यदि न भी निकलता तो भी ये तो अब खुद भी इंसान बहुत अच्छी तरह से समझ और जान रहा है कि प्रकृति द्वारा कुछ भी अनियमित करने होने घटने के पीछे सबसे बढा घटन वो मानवीय क्रियाकलाप ही होते हैं जो प्रकृति के प्रतिकूल हैं ॥
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अभी पिछला घाव ठीक से भरा भी नहीं था किस इस वर्ष फ़िर से धरती का स्वर्ग कहलाने वाला जम्मू कशमीर पिछले कई दशकों में पहली बार आई जल प्रलय के विप्लव से बुरी तरह त्रस्त हुआ है । पिछले दस दिनों से लगातार , सरकार , प्रशासन , आपदा नियंत्रक , भारतीय सेना और आर एस एस जैसे स्वयं सेवी संगठन वहां पीडित क्षेत्र में फ़ंसी हुई जिंदगियों को बचाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि लोगों को काल के गाल में समा जाने से बचाया जा सके । स्थिति इतनी भयावह और विकट है कि इसे राष्ट्रीय आपदा मानते हुए पूरा देश सहायता के लिए आगे आया है ॥ एक बार पुन: वही विमर्श , वही आंकडे , आकलन ..........॥
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आखिर कब ..कब हम इस बात को अच्छी तरह समझेंगे कि हम इस प्रकृति जो कि जल , थल , वायु, अगिन , मिट्टी ,पर्वत , नदी , पेड आदि तत्वों के समन्वय से सिंचित होती रही है और लाख उन्नति और आधुनिकता के बावजूद भी , जी हां अब भी मानव/इंसान प्रकृति के उपस्थिति तत्वों में से बहुत ही सूक्ष्म और कोमल है शायद यही वजह है कि प्रकृति के हल्के से हल्के दबाव के आगे वो तिनके की तरह बिखर जाता है ।
विश्व में बढती प्राकृतिक आपदाओंने इंसानों को बहुत कुछ सिखाया जिसमें से सबसे अधिक ये कि बदलती हुई पारिस्थितिकी के अनुसार मानव जीवन ने अपने आपको बदला और ढाला , और ये प्रक्रिया युगों युगों से सतत चलती चली आ रही है । अब तो भू विज्ञानियों , प्राणी विज्ञानियों और बहुत से संबंधित विज्ञानों ने निरंतर खोज़ कर ऐसे साक्ष्य जुटा लिए हैं जो स्पष्टत: ये प्रमाणित करता है कि इंसानी सभ्यता बहुत ही प्राचीन समय से प्रकृति के साथ संघर्षरत होते हुए भी उसके साथ बराबर तालमेल बिठाती आई है । और इतिहास इस बात का भी गवाह रहा है कि जब जब इंसान ने अपनी जिद , अपने अन्वेषण , अपनी आवश्यकता के कारण , प्रकृति की नैसर्गिक व्यवस्था में सेंध लगाने की कोशिश की है , प्रकृति खुद उसे संतुलित कर लेती है ॥
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प्रकृतिशास्त्री पिछले दो दशकों से ,या शायद तभी जब से इंसान ने अपनी सुविधा के लिए प्रकृति के मिज़ाज़ के खिलाफ़ जाकर छेडछाड शुरू की तभी से बार बार इस बात पर चिंता जताते हुए नसीहत स्वरूप ये कहते रहे हैं कि जीवन जीने के रास्ते प्रकृति के खिलाफ़ नहीं प्रकृति के साथ तलाशे जाने चाहिए । इतने बरसों बाद भी जहां एक तरफ़ हम इंसान , न तो प्रकृति के तत्वों का सम्मान करते हैं और न ही उन्हें सहेजने और संरक्षित करने के लिए रत्ती भर भी गंभीर है । विशेषकर पश्चिमी देशों की तुलना में अभी देश में कुछ भी नहीं सोचा किया गया है अब ये तो खुद सरकार , समाज , और आपको हमें तय करना है कि हमें भविष्य में ऐसी त्रासदियों के लिए तैयार रहना चाहिए या हमें अभी से चेत कर प्रकृति के साथ सहजीवन पद्धति का विकास करना चाहिए ....प्रकृति सोच चुकी है , अब सोचना आपको और हमें है ............