अभी हाल ही में राजधानी के एक कॉलोनी में तीन स्कूली छात्रों ने मामूली सी बात पर अपने ही स्कूल के एक चौदह वर्षीय छात्र , जो नवीं कक्षा में पढता था को सरेआम पीट पीट कर मार डाला । इस घटना से तीन चार दिन पहले की एक घटना में उत्तरी दिल्ली स्थित किशोर सुधार गृह के नाबालिग आरोपी किशोरों ने इतना उत्पात मचाया कि आसपास के रिहायशी क्षेत्र के निवासियों में भय व्याप्त हो गया । इन दोनों बडी घटनाओं ने समाजविज्ञानियों की उस बहस को फ़िर खडा कर दिया जो दिल्ली के दामिनी बलात्कार कांड के समय एक नाबालिग आरोपी के कृत्य और वर्तमान कानून के अनुसार सख्त सज़ा से बच निकलने की संभावना के कारण उठ गई थी । हालांकि दिल्ली बलात्कार कांड के इस तथाकथित नाबालिग आरोपी के फ़ैसले पर फ़िलहाल रोक लगी हुई है क्योंकि सर्वोच्च अदालत "नाबालिग " की परिभाषा विशेषकर इन परिस्थितियों और अपराधों के परिप्रेक्ष्य में परिभाषित करने में लगी है ।
ज्ञात हो कि दिल्ली बलात्कार कांड के बाद गठित वर्मा समिति ने अपनी सिफ़ारिश में , बावजूद इसके कि देश भर के पुलिस अधिकारियों की हुई बैथक में निर्धारित आयु अठारह वर्ष को कम करने की सिफ़ारिश की गई थी, भी यही मत रखा कि सिर्फ़ किसी एक या दो घटनाओं और अपराध के कारण समाजविज्ञानियों एवं विधिज्ञों द्वारा निर्धारित आयु को कम कर देना तर्कसंगत नहीं होगा । इसके पीछे एक अहम वजह ये बताई गई कि निर्धारित उम्र सीमा देश के पूरे सामाजिक परिदृश्य को ध्यान में रखकर निश्चित की गई थी और इसे बदलने या कम करने से उन मासूम अपराधियों , जिनके लिए वास्तव में इसे अठारह वर्ष रखा गया था, के भविष्य पर प्रतिकूल प्रभाव पडेगा ।
दिल्ली बलात्कार कांड के एक आरोपी, जिसकी सज़ा पर फ़ैसला प्रतीक्षित है और इसके साथ ही माननीय सर्वोच्च न्यायालय में प्रतीक्षित है एक अन्य याचिका जो नाबालिग की परिभाषा तय करने के लिए दायर और स्वीकृत की गई है । लेकिन अभी ये मुकदमा अपनी नियति तक पहुंचा भी नहीं है कि पुन: पूरे देश को शर्मसार करने वाले मुंबई सामूहिक बलात्कार कांड में शामिल आरोपियों में से एक आरोपी के भी किशोर अपराधी होने की खबर है । इन बडे अपराधों से इतर अन्य अपराधों में किशोरों के बढते दखल ने समाजविज्ञानियों को चिंता में डाल दिया है ।
राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकडों के अनुसार वर्ष २०१० से २०१२ तक कुल दर्ज़ अपराधों में युवाओं और किशोरों की संलिप्तता में ३९% तक की वृद्धि हुई है । झपटमारी , स्टंटबाजी , सट्टेबाजी , नशाखोरी , लूटमार जैसे अपराधों से लेकर हत्या , डकैती और बलात्कार जैसे संगीन अपराधों तक में किशोरों का बढता दखल किसी अनिष्टकारी भविष्य की ओर संकेत करता है । ब्यूरो ने अपनी पडताल से ये निष्कर्ष निकाला , अपराध के दलदल में फ़ंसे युवाओं में से सिर्फ़ २१ प्रतिशत युवा ही किसी मजबूरी या परिस्थिति से मजबूर होकार अपराध कर बैठे थे अन्य सभी , मौज मस्ती के लिए, झूठी शान शौकत दिखाने के लिए और रोमांच के लिए किए गए थे । इससे बदतर स्थिति और क्या हो सकती है कि वर्ष २०१३ के जून महीने तक सिर्फ़ दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में युवा अपराधियों की संख्या १९२८ तक जा पहुंची है । पिछले दो महीने में ही सिर्फ़ मुंबई की लोकल ट्रेनों और उसके आसपास खतरनाक स्टंटबाजी करते हुए१४ नाबालिग किशोरों ने अपनी जान से हाथ धो लिया ।
समाजविज्ञानियों ने अपराध जगत में किशोरों की बढती भागीदारी के कारणों पर प्रकाश डालते हुए बताया कि शहरी जीवन में शानो-शौकत का झूठा दिखावा , घोर उपभोक्तावादी रहन सहन नशे शराब की बढती लत , हिंसक व क्रूर होती प्रवृत्ति तथा सामाजिक मान्यताओं को दी जाने वाली चुनौतियां कुछ अहम कारण हैं इसके अलावा नादानी में घर से भागकर या किसी अन्य मजबूरी के कारण अपराध के दलदल में फ़ंसे युवक भी धीरे धीरे बडे अपराध करने में अभ्यस्त हो जाते हैं । अपराध विज्ञानी मानते हैं कि कम उम्र में किसी भी कारण से भटक कर अपराध व गुनाह का रास्ता पकडने वाले किशोरों के सुधार व उन्हें मुख्य धारा में लाए जाने की कोशिश व योजना में सरकार की उदासीनता भी एक बडी वजह है । समाचारों में आए दिनों सरकारी सुधार गृहों व आश्रय स्थलों में फ़ैली अव्यवस्था, किशोरों का दैहिक व मानसिक शोषण आदि उन्हें नई दिशा देना तो दूर उलटा पेशेवर मुजरिम बना देता है ।
सर्वोच्च न्यायालय में लंबित याचिका जो ये निर्धारित करेगी कि नाबालिग द्वारा किए गए अपराध और उसे सुनाई जाने वाली सज़ा के मद्देनज़र "नाबालिग" की परिभाषा केल इए क्या सिर्फ़ कानून में निर्धारित उम्र को ही आधार माना जाए या फ़िर उसके "मानसिक स्तर" विशेषकार अपराध कारित करते समय उसकी गंभीरता व परिणाम को समझ सकने की उसकी क्षमता को भी ध्यान में रखा जाए । मौजूदा समय में कानूनी स्थिति यह है कि सात वर्ष से कम उम्र के शिशु द्वारा किए गए अपराध के लिए उसे कोई दंड नहीं दिया जा सकता । सात से बारह वर्ष की उम्र के किसी भी किशोर द्वारा किए अपराध के लिए उसे दंडित किए जाने से पहले उसके मानसिक स्तर विशेषकर अपराध की गंभीरता और उसके परिणाम की समझ को जानने की उसकी क्षमता का परीक्षण किया जाता है । अठारह वर्ष से कम उम्र के किशोरों के लिए बने जुवेनाइल जस्टिस एक्ट १९८६ के तहत साबित होने पर आरोपी को अधिकतम तीन वर्ष की सज़ा दी जा सकती है ।
अब सबसे बडा सवाल ये है कि दिल्ली बलात्कार कांड में जिस आरोपी के सबसे नृशंस और क्रूर कृत्य के कारण पीडिता युवती को लाख कोशिशों के बावजूद बचाया नहीं जा सका क्या उसे किसी भी तर्क , कानून , दलील से मासूम अपराधी माना जा सकता है ??? दूसरा अहम प्रश्न ये कि दिल्ली-मुंबई बलात्कार कांड में नाबालिग किशोरों को यदि सिर्फ़ उम्र थोडा कम होने के कारण नाममात्र की सज़ा दी जाती है तो क्या ये समाज के लिए एक अनुचित नज़ीर ,एक गलत परंपरा और दंड नहीं बनेगी ? सवाल सिर्फ़ कानून, अपराध और दंड का ही नहीं है बल्कि समाज, परिवेश व परवरिश का भी है क्योंकि आज का युवा ही कल देश का भविष्य बनेगा ।