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शुक्रवार, 1 मई 2020

बागवानी के लिए जरूरी हैं गमले





आज बात करते हैं गमलों की।
बागवानी विशेषकर शहरों में जहां आपको छत पर ,बालकनी में ,सीढ़ियों में और खिड़की पर जैसी जगह ही बड़ी मुश्किल से मयस्सर होती है वहां गमलों में बागवानी ही एकमात्र विकल्प बचता है इसलिए ऐसी शहरी बागवानी में गमलों की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाती है।
गमलों का आकार प्रकार सिर्फ सिर्फ उसमें लगाए जाने वाले पौधे पर निर्भर करता है। छोटी जड़ वाले पौधे के लिए छोटे और माध्यम आकार के गमले चल सकते हैं किन्तु जिन पौधों की जड़ों को फैलाव की जरूरत होती है उनके लिए निश्चित रूप से माध्यम आकार के गमले ही चाहिए।
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि मैंने बड़े छोटे पौधे नहीं कहा है बल्कि कहा है बड़ी जड़ वाले और छोटी जड़ वाले पौधे। मसलन गुलाब के पौधे बड़े होते हैं मगर जड़ छोटी इसलिए छोटे छोटे गमले में भी उग सकते हैं इसके उलट गेंदे फूल छोटे होते हैं मगर रेशेदार जड़ों को फैलाव अधिक चाहिए इसलिए यदि उन्हें आप छोटे गमले में लगा भी दें तो या तो फूल आएंगे ही नहीं या फिर फूल आकर में छोटे आएँगे।
फूलों के गमलों का आकर तो थोड़ा बहुत छोटा बड़ा फिर भी चल सकता है किन्तु फल सब्जी आदि के लिए मध्यम और बड़े आकर का गमला ही जरूरी है नहीं तो फल का आकार छोटा रह जाएगा हमेशा।
गमले मिट्टी के ,प्लास्टिक के ,लकड़ी के और ग्रो बैग भी हो सकते हैं। गमलों का चयन उन्हें रखने जाने वाले स्थान पर भी निर्भर करता है। बस ध्यान ये रखना होता है कि सभी गमलों में पानी की निकासी के लिए निर्धारित छिद्र बना हुआ हो ताकि उसमें पानी न जमा रहे और पौधों की जड़ें अधिक पानी से सड़ न जाएँ।
साग पात धनिया पुदीना मेथी पालक आदि जैसे सब्जियों के लिए चौड़े और कम गहरे गमले का इस्तेमाल किया जाना चाहिए जबकि मिर्च नीम्बू संतरे चीकू अमरूद केले अनार आदि के लिए बड़े और गहरे गमले का प्रयोग उचित रहता है।
गमलों में मिट्टी कभी भी ऊपर से एक दो इंच या तीन इंच तक भी से नीचे ही रहनी चाहिए ताकि पानी डालने के बाद जड़ों तक पहुँच कर सोखने के लिए पर्याप्त पानी व समय मिल सके।
शुरुआत में बागवानी करने वालों को ,बोतलों ,ज़ार ,मग आदि को गमलों में परिवर्तित करके बागवानी में रोमांच के प्रयोग से बचना चाहिए। जब बागवानी में सिद्ध हस्त हो जाएं तो फिर चाहे वे अपनी हथेली पर भी गुलाब उगा लें।
गमलों को मौसम में गरमी सर्दी के अनुसार उनका स्थान भी बदलना जरूरी होता है। इससे एक तो पौधों को अनुकून वातावरण मिल जाएगा दूसरे अधिक समय तक एक स्थान पर पड़े रहने के कारण छत बालकनी आदि में उनसे पड़ने वाले निशान से भी बचा जा सकता है। गमलों के नीचे प्लेट रखना भी इन निशानों से बचाने का एक विकल्प होता है।
किसी भी गमले की उम्र कम से कम चार वर्ष तो रहती ही है बशर्ते कि आपसे भूलवश वो गिर कर टूट न जाए।
आज के लिए इतना ही , आप चाहें तो अपने प्रश्न यहाँ पूछ सकते हैं

गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

कुछ यूं ही कर दिखाओ तो जानें




वाह भईये , भई बहुत अच्छे जा रहे हो । यूं ही सधे सधे कदमों से आगे बढते चलो , बेशक इस लडाई का अभी कोई तुरंत और त्वरित सुखद परिणाम निकल कर सामने नहीं आए , इसके बावजूद, हां इसके बावजूद भी ये जो समीकरण बदलने की शुरूआत तुमने की है उसका प्रभाव देखने के लिए सिर्फ़ इतना ही देखना काफ़ी होगा कि बिना खानदान , पुश्तों की राजनीतिक बपौती , बिना किसी बडे बडे आपराधिक दबंगई के रिकार्ड के तुमने न सिर्फ़ बरसों से चली आ रही सोच और निष्क्रियता को थोडा सा तो झटक दिया है । सालों से सोई सोच को तंद्रा से उठाने के लिए इतना झटका पर्याप्त तो है ही ।


आखिरकार वही हुआ जिसका डर था , डर सियासत और सियासतदानों को था , वे अक्सर ही नायक फ़िल्म के अमरीश पुरी बनकर बात बेबात चिल्ला कर कहते थे , अबे यूं न समझो हमें जनता ने चुन कर भेजा है , हम जनता की आवाज़ हैं , जो कहते हैं जो करते हैं समझो जनता कहती है जनता करती है , बिल्कुल राजा बाबू वाली फ़ील सी आने लगती थी , फ़िर जब जरा सा आइना दिखाया तो बिलबिला कर बोल बैठे , चलो आओ जाओ फ़िर मैदान में । लगता तो ये है कि अब ये राजनीतिक पार्टियां यही सोच रही होंगी कि जब आज तक देश की जनसंख्या बढते हुए जाने कितनी गुना हो गई है और ऐसे में भी देश चलाने के लिए सिर्फ़ उतने ही चुने हुए नगीनों के कंधों पर यकीन किया जाना चाहिए , ज्यादा कंधें ज्यादा जिम्मेदारी उठा सकते हैं , लेकिन यहां कंधों की नहीं सिर्फ़ जेबों की जरूरत ही मुख्य रही थी , ऐसे में भी प्रतिनिधियों ने कंधों का दायरा ज्यादा नहीं बढने दिया । शायद फ़िर दूसरी ये वजह रही हो कि , सत्र के दौरान वैसे ही क्या कम हाट बाज़ार मंडी वाली भावना दिखाई देती है जो और जनप्रतिनिधियों की गुंजाईश बनाएं ।


वाह भईये , कहां तो जंतर मंतर से मुट्ठी भर सेना के सहारे सीधा सियासत को ललकार दिया , ईश्वर ही जानता है कि उस समय जंतर मंतर पर मौजूद एक एक व्यक्ति ,देश और व्यवस्था को बदलने के जिस ज़ज़्बे को जी रहा था वो यदि पश्चिमी या अरब देशों की तरह हिंसक हो उठता तो जनलोकपाल से पहले सी सरकार का जनाजा उठा  के मानता । सिद्धांत और विचारों के कारण एक हुए लोग , फ़िर किसी वैचारिक भिन्नता के कारण अलग अलग रास्तों पर चलने को उद्दत हुए । एक ने चुना उस चुनौती को सीधे सियासत के नुमाइंदों ने की थी , दूसरे ने चुना वही जन आंदोलन और सामाजिक जागरूकता का रास्ता । लेकिन दोनों की इस फ़ूट को इस लडाई की विफ़लता करार देने वाले ये भूल कर बैठे कि इस तरह तो उनके खिलाफ़ दो मोर्चों पर लडने वाले उठ खडे हुए हैं , जिनकी लडाई बेशक अलग हो मगर मकसद तो वही है । और फ़िर क्या ये अवश्यंभावी नहीं है कि नीयत मिलने वाले लोगों के पुन: मिल बैठने की गुंज़ाईश ज्यादा प्रबल है । वैसे सोच कर देखिए कि , यदि जनलोकपाल की लडाई को शुरू करने वाली वो सिविल सोसायटी कोई एक रास्ता ही चुन कर उस पर अपनी चोट प्रबलता से करती तो क्या सियासत और सरकार इतने दिनों तक भी चैन से रह सकते थे ।


अब एक नया हल्ला मच और मचाया जा रहा है , वादे कर तो दिए मगर पूरे नहीं कर पाएंगे इसी वजह से तो ये नए नए शहसवार मैदाने सियासत में कूदने से डर रहे हैं , ललकारने पर कोई खुद सी एम बनकर समस्याओं को हल करे ऐसा तो सिर्फ़ नायक सिनेमा में हो सकता है ,असल में ऐसा कोई नायक समाज में आज मौजूद नहीं है । गौर से देखिए , आज सरकार , समाज और थोपी गई नीतियों के खिलाफ़ उठ कर खडे होने और लडने वालों की तादाद बढती ही जा रही है , समय आ रहा है जब हर उस एक व्यक्ति को निशाने पर लिया जाएगा और लिया जाना चाहिए जिसकी आमदनी से कहीं बडी और ऊंची उसकी औकात हो जाए । क्या नहीं हो सकता , बिजली , पानी , सडकें , शौचालय , स्कूल , अस्पताल ...एक एक चीज़ हो सकती है , करोडों अरबों कमाने वालों की पूरी फ़ौज़ खडी है , सभी दो नंबरियों की सारा माल पत्तर जब्त करके झोंक दो सबके लिए । इतने स्कूल इतने अस्पताल इतने अदालत बना दो कि गरीब को पढने के लिए , ईलाज़ और न्याय के लिए बरसों तक सरकार समाज का मुंह नहीं ताकना पडे ।


सबसे अहम बात , ये सब तभी संभव है जब लोकसेवक बन कर काम करना , नेता मंतरी बन कर नहीं । ध्यान रहे कि ये जनसेवा की कुर्सी सिर्फ़ पांच बरसों के लिए मिली है वो भी एडहॉक बेसिस पे , इसलिए बिंदास और बेखौफ़ करो अपना काम , ये ध्यान में रखते हुए कि जनता खुद अब सी आर लिख रही है सबका । वैसे तो ताज़ा घटनाक्रम और पल पल बदलते तेवर यही बता रहे हैं कि आम आदमी को सिंहासन पर बैठा हुआ देखने का ताव ये सभी राजनीतिज्ञ ज्यादा दिनों तक नहीं सह सकेंगे , लेकिन जब तक चले ये रस्साकशी , तुम थामे रहना , झुकना मत , टूटना मत ................

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

सरकार की उगाही और घोटाले











 दिल्ली नगर निगम ,राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ,बहुत जल्दी ही , साफ़ सफ़ाई , स्वच्छता के लिए एक नया कर ,सैनिटेशन कर ,लाने की तैयारी कर रहा है । मौजूदा समय के राजनीतिक हालातों को देखते हुए इस बात की पूरी संभावना है कि ,थोडे बहुत हील हुज्जत के बाद सरकार ये कर आम लोगों पर थोप ही देगी । सबसे बडी विडंबना ये है कि ,जिस समाचार माध्यम पर इस आशय की खबर दिखाई सुनाई दे रही थी उसके साथ ही ये खबर भी थी कि ,एक दिन पहले पूर्वी दिल्ली में एक व्यवसायी की मौत ,  बीस फ़ीट गहरी सीवर लाईन के मैनहोल के खुले ढक्कन में गिर कर हो गई । और ऐसा नहीं है कि ये कोई इकलौती घटना है । इन दोनों बातों को देखते समझते हुए आम आदमी के सामने कुछ गंभीर प्रश्न उठ कर आ जाते हैं । पिछले एक दशक में सरकार नए नए करों, और करों पर उपकर लगाने की संभावना तलाश कर उन्हें मनमाने तरीके से आम लोगों पर थोप रही है उससे यही लग रहा  है कि सरकार किसी न किसी बहाने से आम लोगों के खून पसीने की गाढी कमाई में से हिस्सेदारी वसूल रही है । 


देश के अर्थशास्त्र और उसे पूंजीवान बनाए रहने के लिए ये जरूरी है कि सरकार अपने नागरिकों से कर वसूलने के अधिकार का प्रयोग करे , उसमें किसी नागरिक को कोई आपत्ति भी नहीं है , किंतु यकायक ही बिना किसी आधार के , बिना आम लोगों की राय मंशा जाने सीधा एक कर उनपर थोप देना न्यायसंगत नहीं लगता ,खासकर उस शासन प्रणाली में तो कतई नहीं जो खुद को आधुनिक युग का सबसे सफ़ल प्रजातंत्र मानता हो । सरकार किसी भी नए कर के प्रस्ताव और उसे कानून बना कर जनता के ऊपर थोपे जाने के मामलों में उतनी ही और ठीक वैसी ही जल्दबाज़ी दिखाती है जितना कि सांसदों व विधायकों के वेतन वृद्धि के समय । 

इससे अलग और ज्यादा महत्वपूर्ण बात ये है कि , सरकार पुराने करों के साथ साथ नए नए कर उपकर भी आम लोगों पर लादे जा रही हैं । आम आदमी जो पहले ही दैनिक जरूरतों की वस्तुओं को पाने के लिए , अच्छा आवास , रोजी , शिक्षा ,स्वास्थ्य के लिए महंगाई से जूझ रहा होता है , सरकार व प्रशासन आम आदमी को तो कानून और कर चोरी के अपराध का डर दिखा कर उसे कर चुकाने पर मजबूर भी कर लेती है , किंतु लाखों करोडों अरबों रुपए का कर चोरी करने वाले बडे औद्यौगिक घराने , बडे बडे राजनीतिज्ञ ,खिलाडी ,अभिनेताओं आदि पर अपनी सख्ती नहीं दिखाती है । 


आम आदमी का गुस्सा इन करों को दिए जाने से ज्यादा तब फ़ूट पडता है जब वो देखता है कि उसकी गाढी कमाई से निकले हुए एक भाग को राजनीतिज्ञ व प्रशासक घोटाले गबन करके हडप कर जाते हैं ,और इसका परिणाम ये होता है कि इन करों के आधार पर आम लोगों के विकास और सुविधा के लिए जो योजनाएं और निर्माण कार्य     होने होते हैं वे सब इसकी भेंट चढ जाते हैं ।ज्ञात हो वाहनों को खरीदते समय ही ग्राहक से आजीवन पथकर के रूप में राशि वसूल ली जाती है और देश की सडकों का हाल वास्तविकता बयां करता है कि उस पथकर का उपयोग सडक के लिए कितना किया जाता है । खराब सडकों के कारण प्रतिवर्ष हादसे में सैकडों व्यक्तियों की मौत के लिए सरकार अपनी जिम्मेदारी लेना तो दूर , इन दुर्घटनाओं में पीडितों को मिलने वाले मुआवजे को देने में भी जैसी असंवेदनशीलता दिखाती हैं वो शर्मनाक और निंदनीय है । 


दिल्ली सरकार देर सवेर सैनिटेशन चार्ज़ वसूलने के लिए नया कानून तो ले ही आएगी , और यदि इस कानून के बाद जनता को शहर की स्वच्छता के कार्य में कुछ प्रतिशत भी सकारात्मक दिखता है तो यकीनन उसे अफ़सोस नहीं होगा बल्कि खुशी से वह कह सकेगा कि शहर की सुंदरता में उसका अपना भी कुछ योगदान है , हालांकि एक नागरिक के रूप में लोग स्वयं ही गंदगी को न फ़ैला कर , कूडे कचरे का सही और समुचित निस्तारण व्यवस्था में हाथ बंटा कर गलियों शहरों को सुंदर रखने में मदद करें तो ऐसे करों और उपकरों की नौबत ही नहीं आएगी । इसके अलावा सरकार को उन लोगों पर भी भारी जुर्माने और सज़ा का प्रावधान करना , न सिर्फ़ कानूनन बल्कि व्यावहारिक रूप में करना चाहिए । साठ सालों से बिगडती हुई तस्वीर को अगले साठ सालों में बिल्कुल लुप्त हो जाने से बचाने के लिए कुछ तो कठोर करना ही होगा । यदि इसी तरह से आम जनता द्वारा वसूले जा रहे कर धन को राजनीतिज्ञ अपने विदेशी बैंक खातों में भरते रहेंगे तो फ़िर जनता अपना रास्ता चुनने को बाध्य होगी , और नए जनांदोलनों की शुरूआत का बहाना भी । 



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